सप्तत्रिंश (37) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (नारदागमन पर्व)
महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद
तदनन्तर विजयी पुरुषों में श्रेष्ठ राजा धृतराष्ट्र ने उस अग्नि को निकट आती जान सूत संजय से इस प्रकार कहा- "संजय! तुम किसी ऐसे स्थान में भाग जाओ, जहाँ यह दावाग्नि तुम्हें कदापि जला न सके। हम लोग तो अब यहीं अपने को अग्नि में होम कर परम गति प्राप्त करेंगे।" तब वक्ताओं में श्रेष्ठ संजय ने अत्यन्त उद्विग्न होकर कहा- "राजन! इस लौकिक अग्नि से आपकी मृत्यु होना ठीक नहीं है, (आपके शरीर का दाह-संस्कार तो आहवनीय अग्नि में होना चाहिये।) किंतु इस समय इस दावानल से छुटकारा पाने का कोई उपाय भी मुझे नहीं दिखायी देता। अब इसके बाद क्या करना चाहिये, यह बताने की कृपा करें।" संजय के ऐसा कहने पर राजा धृतराष्ट्र ने फिर कहा- "संजय! हम लोग स्वयं गृहस्थाश्रम का परित्याग करके चले आये हैं, अतः हमारे लिये इस तरह की मृत्यु अनिष्टकारक नहीं हो सकती। जल, अग्नि तथा वायु के संयोग से अथवा उपवास करके प्राण त्यागना तपस्वियों के लिये प्रशंसनीय माना गया है; इसलिये अब तुम शीघ्र यहाँ से चले जाओ। विलम्ब न करो।" संजय से ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र ने मन को एकाग्र किया और गांधारी तथा कुन्ती के साथ वे पूर्वाभिमुख होकर बैठ गये। उन्हें उस अवस्था में देख मेधावी संजय ने उनकी परिक्रमा की और कहा- "महाराज! अब अपने को योगयुक्त कीजिये।" महर्षि व्यास के पुत्र मनीषी राजा धृतराष्ट्र ने संजय की वह बात मान ली। वे इन्द्रिय समुदाय को रोककर काष्ठ की भाँति निश्चेष्ट हो गये। इसके बाद महाभाग गांधारी, तुम्हारी माता कुन्ती तथा तुम्हारे ताऊ राजा धृतराष्ट्र- ये तीनों ही दावाग्नि में जलकर भस्म हो गये; पंरतु महामात्य संजय उस दावाग्नि से जीवित बच गये हैं। मैंने संजय को गंगा तट पर तापसों से घिरा देखा है। बुद्धिमान और तेजस्वी संजय तापसों को यह सब समाचार बताकर उनसे विदा ले हिमालय पर्वत पर चले गये। प्रजानाथ! इस प्रकार महामनस्वी कुरुराज धृतराष्ट्र तथा तुम्हारी दोनों माताएँ गांधारी और कुन्ती मृत्यु को प्राप्त हो गयीं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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