महाभारत आदि पर्व अध्याय 45 श्लोक 18-34

पंचत्‍वारिंश (45) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व:पंचत्‍वारिंश अध्‍याय: श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद


आजकल हमारी परम्परा में एक ही तन्तु या संतति शेष है, किंतु वह भी नहीं के बराबर है। हम अल्पभाग्य हैं, इसी से वह मन्दभाग्य संतति एकमात्र तप में लगी हुई है। उसका नाम है जरत्कारु। वह वेद-वेदागों का पारंगत विद्वान होने के साथ ही मन और इन्द्रियों को संयम में रखने वाला, महात्मा, उत्तम व्रत का पालन और महान तपस्वी है। उसने तपस्या के लोभ से हमें संकट में डाल दिया है। उसके न पत्नी है, न पुत्र और न कोई भाई-बन्धु ही है। इसी से हम लोग अपनी सुध-बुध खोकर अनाथ की तरह इस गड्ढे में लटक रहे हैं। यदि वह आपके देखने में आवे तो हम अनाथों को सनाथ करने के लिये उससे इस प्रकार कहियेगा। ‘जरत्कारो! तुम्हारे पितर अत्यन्त दीन हो नीचे मुँह करके गड्ढे में लटक रहे हैं। तुम उत्तम रीति से पत्नी के साथ विवाह कर लो और उसके द्वारा संतान उत्पन्न करो। तपोधन! तुम्हीं अपने पूर्वजों के कुल में एकमात्र तन्तु बच रहे हो। ब्रह्मन! आप जो हमें खश के गुच्छे का सहारा लेकर लटकते देख रहे हैं, यह खश का गुच्छा नहीं है, हमारे कुल का आश्रय है, जो अपने कुल को बढ़ाने वाला है। विप्रवर! इस खश की जो कटी हुई जड़ें यहाँ आपकी दृष्टि में आ रही हैं, ये ही हमारे वंश के वे तन्तु (संतान) हैं, जिन्हें कालरूपी चूहे ने खा लिया है। ब्राह्मण! आप जो इस खश की यह अधकटी जड़ देखते हैं, जिसके सहारे हम गड्डे में लटक रहे हैं, यह वही एकमात्र संतान जरत्कारु है, जो तपस्या में लगा है और ब्राह्मण देवता! जिसे आप चूहे के रूप में देख रहे हैं, यह महाबली काल है।

वह उस तपस्वी एवं मूढ़ जरत्कारु को जो तप को ही लाभ मानने वाला, मन्दात्मा (अदूरदर्शी) और अचेत (जड़) हो रहा है, धीरे-धीरे पीड़ा देते हुए दाँतों से काट रहा है। साधुशिरोमणे! उस जरत्कारु की तपस्या हमें इस संकट से नहीं उबारेगी। देखिये, हमारी जड़ें कट गयी हैं, काल ने हमारी चेतनाशक्ति नष्ट कर दी है और हम अपने स्थान से भ्रष्ट होकर नीचे इस गड्ढे में गिर रहे हैं। जैसे पापियों की दुर्गति होती है, वैसे ही हमारी होती है। हम समस्त बन्धु-बन्धुवों के साथ जब इस गड्ढे में गिर जायेंगे तब जरत्कारु भी काल का ग्रास बनकर अवश्य ही इसी नरक में आ गिरेगा। तात! तपस्या, यज्ञ अथवा अन्य जो महान एवं पवित्र साधन हैं, वे सब संतान के समान नहीं हैं। तात! आप तपस्या के धनी जान पड़ते हैं। आपको तपस्वी जरत्कारु मिल जाये तो उससे हमारा संदेश कहियेगा और आपने यहाँ जो कुछ देखा है, वह सब उसे बता दीजियेगा। ब्रह्मन! हमें सनाथ बनाने की दृष्टि से आप जरत्कारु के साथ इस प्रकार वार्तालाप कीजियेगा, जिससे वह पत्नी संग्रह करे और उसके द्वारा पुत्रों को जन्म दे। तात! जरत्कारु के बान्धव जो हम लोग हैं, हमारे लिये अपने कुल की भाँति अपने भाई-बन्धु के समान आप सोच कर रहे हैं। अतः साधुशिरोमणे! बताइयेे, आप कौन हैं? हम सब लोगों में से आप किसके क्या लगते हैं, जो यहाँ खडे़ हुए हैं? हम आपका परिचय सुनना चाहते हैं।'

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में जरत्कारु के पितर-दर्शनविषयक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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