सप्तत्यधिकशततम (170) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: सप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद
विशेषत: उसके रुप और वेश से विभूषित हो वृक्ष, गुल्म और लताओं सहित वह पर्वत सुवर्णमय सा जान पड़ता था। उसे देखकर संवरण की समस्त लोकों की सुन्दरी युवतियों में अनादर-बुद्धि हो गयी। राजा यह मानने लगे कि आज मुझे अपने नेत्रों का फल मिल गया। भूपाल संवरण ने जन्म से लेकर (उस दिन तक) जो कुछ देखा था, उसमें कोई भी रुप उन्हें इस (दिव्य किशोरी) के सद्दश नहीं प्रतीत हुआ। उस कन्या ने उस समय अपने उत्तम गुणमय पाशों से राजा के मन और नेत्रों को बांध लिया। वे अपने स्थान से हिल-डुल तक न सके। उन्हें किसी बात की सुध-बुध (भी) न रही। वे सोचने लगे, निश्चय ही ब्रह्मा ने देवता, असुर और मनुष्यों सहित सम्पूर्ण लोकों के सौन्दर्य-सिन्धु को मथकर इस विशाल नेत्रों वाली किशोरी के इस मनोहर रुप का आविष्कार किया होगा। इस प्रकार उस समय उसकी रुप-सम्पत्ति से राजा संवरण ने यही अनुमान किया कि संसार में इस दिव्य कन्या की समता करने वाली दूसरी कोई स्त्री नहीं है। कल्याणमय कुल में उत्पन्न हुए वे नरेश उस कल्याण स्वरुपा कामिनी को देखते ही काम-बाण से पीड़ित हो गये। उनके मन में चिन्ता की आग जल उठी। तदनन्तर तीव्र कामाग्नि से जलते हुए राजा संवरण ने लज्जारहित होकर उस लज्जाशीला एवं मनोहारिणी कन्या से इस प्रकार पूछा- ‘रम्भोरु! तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो? और किसलिये यहाँ खड़ी हो? पवित्र मुस्कान वाली! तुम इस निर्जन वन में अकेली कैसे विचर रही हो? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज