एकोनचत्वारिंशदधिकशततम (139) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: एकोनचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 59-70 का हिन्दी अनुवाद
अवसर देखकर हाथ जोड़ना, शपथ खाना, आश्वासन देना, पैरों पर मस्तक रखकर प्रणाम करना और आशा बांधना- ये सब ऐश्वर्य प्राप्ति की इच्छा वाले राजा के कर्तव्य हैं। नितिज्ञ राजा ऐसे वृक्ष के समान रहे जिसमें फूल तो खूब लगे हों परंतु फल न हो (वह बातों से लोगों को फल की आशा दिखाये, उसकी पूर्ति न करे)। फल लगने पर भी उस पर चढ़ना अत्यन्त कठिन हो (लोगों की स्वार्थ सिद्ध में वह विध्न डाले या विलंब करे)। वह रहे तो कच्चा, पर दीखे पके के समान (अर्थात स्वार्थ साधकों की दुराशा को पूर्ण न होने दे)। कभी स्वयं जीर्ण न हो (तात्पर्य यह है कि अपना धन खर्च करके शत्रुओं का पोषण करते हुए अपने आप को निर्धन न बना दे)। धर्म अर्थ और काम- इन त्रिविध पुरुषार्थ के सेवन में तीन प्रकार की बाधा-अड़चन उपस्थित होती है। उसी प्रकार उनके तीन ही प्रकार के फल होते हैं। (धर्म का फल है अर्थ एवं काम अर्थात भोग की प्राप्ति, अर्थ का फल है धर्म का सेवन एवं भोग की प्राप्ति और काम अर्थात भोग का फल है- इन्द्रिय तृप्ति।) इन (तीन प्रकार के) फलों को शुभ (वरणीय) जानना चाहिये; परंतु (उक्त तीनों प्रकार की) बाधाओं से यत्नपूर्वक बचना चाहिये। (त्रिविध पुरुषार्थों को सेवन इस प्रकार करना चाहिये कि तीनों एक दूसरे के बाधक न हों। अर्थात जीवन में तीनों का सामञ्जस्य ही सुखदायक है।)। धर्म का अनुष्ठान करने वाले धर्मात्मा पुरुष के धर्म में काम और अर्थ- इन दोनों के द्वारा प्राप्त होने वाली पीड़ा बाधा पहुँचाती है। इसी प्रकार अर्थ लोभी के अर्थ में और अत्यन्त भोगासक्त काम में भी शेष दो वर्गों द्वारा प्राप्त होने वाली पीड़ा बाधा उपस्थित करती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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