प्रथम (1) अध्याय: आदि पर्व (अनुक्रमणिका पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 12-27 का हिन्दी अनुवाद
ऋषियों ने कहा - उग्रश्रवा जी! परमर्षि श्रीकृष्ण द्वैपायन ने जिस प्राचीन इतिहासरूप पुराण का वर्णन किया है और देवताओं तथा ऋषियों ने अपने-अपने लोक में श्रवण करके जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है, जो आख्यानों में सर्वश्रेष्ठ है, जिसका एक-एक पद, वाक्य एवं पर्व विचित्र शब्द विन्यास और रमणीय अर्थ से परिपूर्ण है, जिसमें आत्मा-परमात्मा के सूक्ष्म स्वरूप का निर्णय एवं उनके अनुभव के लिये अनुकूल युक्तियाँ भरी हुई हैं और जो सम्पूर्ण वेदों के तात्पर्यानुकूल अर्थ से अलंकृत है, उस भारत इतिहास के परमपुण्यमयी ग्रन्थ के गुप्त भावों को स्पष्ट करने वाली, पदों वाक्यों की व्युत्पत्ति से युक्त, सब शास्त्रों के अभिप्राय के अनुकूल और उनसे समर्थित हो अद्भुतकर्म व्यास की संहिता है, उसे हम सुनना चाहते है। अवश्य ही वह चारों वेदों के अर्थों से भरी हुई तथा पुण्यस्वरूप है। पाप और भय को नाश करने वाली है। भगवान वेदव्यास की आज्ञा से राजा जनमेजय के यज्ञ में प्रसिद्ध ऋषि वैशम्पायन ने आनन्द में भरकर भली-भाँति इसका निरूपण किया है। उगश्रवा जी ने कहा- जो सबका आदि कारण अन्तर्यामी और नियन्ता है, यज्ञों में जिसका आवाहन और जिसके उद्देश्य से हवन किया जाता है, जिसकी अनेक पुरुषों द्वारा अनेक नामों से स्तुति की गयी है, जो ऋत (सत्यस्वरूप), एकाक्षर ब्रह्म (प्रणव एवं एकमात्र अविनाशी और सर्वव्यापी परमात्मा), व्यक्ताव्यक्त (साकार-निराकार) स्वरूप एवं सनातन है, असत-सत एवं उभयरूप से जो स्वयं विराजमान है; फिर भी जिसका वास्तविक स्वरूप सत-असत दोनों से विलक्षण है, यह विश्व जिससे अभिन्न है, जो सम्पूर्ण परावर (स्थूल-सूक्ष्म) जगत का स्रष्टा पुराण पुरुष, सर्वोत्कृष्ट परमेश्वर एवं वृद्धि-क्षय आदि विकारों से रहित है, जिसे पाप कभी छू नहीं सकता, जो सहज शुद्ध है, वह ब्रह्म ही मंगलकारी एवं मंगलमय विष्णु है। उन्हीं चराचर गुरु ऋषिकेश (मन-इन्द्रियों के प्रेरक) श्रीहरि को नमस्कार करके सर्वलोक पूजित अद्भुत कर्मा महात्मा महर्षि व्यासदेव के इस अन्त:करणाशोचक मत का मैं वर्णन करूँगा। पृथ्वी पर इस इतिहास का अनेकों कवियों ने वर्णन किया है और इस समय भी बहुत से वर्णन करते हैं। इसी प्रकार अन्य कवि आगे भी इसका वर्णन करते रहेंगे। इस महाभारत की तीनों लोकों में एक महान ज्ञान के रूप में प्रतिष्ठा है। ब्राह्मणादि द्विजाति संक्षेप और विस्तार दोनों ही रूपों में अध्ययन और अध्यापन की परम्परा के द्वारा इसे अपने हृदय में धारण करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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