महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 96 भाग 3

षण्णवतितम (96) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: षण्णवतितम अध्याय: भाग-3 का हिन्दी अनुवाद


जो विशेष रूप से शौच का सम्पादन करना चाहते हैं, उनके लिये सभी शौच विषयक प्रयोजनों का वर्णन करता हूँ। तत्त्वदर्शी विद्वानों ने शास्त्र में महाशौच आदि विधानों को प्रत्यक्ष देखा है। वहाँ शूद्र भी भिक्षुओं के शौचाचार के लिये मिट्टी तथा अन्य आवश्‍यक पदार्थों का प्रबन्ध करे। जो धर्म के ज्ञाता, केवल धर्म के ही आश्रित तथा सम्यक ज्ञान से सम्पन्न हैं, उन सर्वहितैषी संन्यासियों को चाहिये कि वे सज्जनाचरित मार्ग पर स्थित हो इस पवित्र कोमलतास्वरूप स्थान (मल त्याग के योग्य क्षेत्र आदि) का निश्‍चय करे।

मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले पुरुष को चाहिये कि वह निर्जन एवं घिरे हुए स्थान को देखकर वहाँ सजल पात्र और देखभाल कर ली हुई मृत्तिका रखे। फिर उस भूमि का भलीभाँति निरीक्षण करके मौन होकर मूत्र-त्याग के लिये बैठे। यदि दिन हो तो उत्तर की ओर मुंह करके और रात हो तो दक्षिणा भिमुख होकर मल या मूत्र का त्याग करे। मल त्याग करने के पूर्व उस समय भूमि को तिनके आदि से ढके रखना चाहिये तथा अपने मस्तक को भी वस्त्र से आच्छादित किये रहना उचित है। जब तक शौच कर्म समाप्त न हो जाये, तब तक मुंह से कुछ न बोले, अर्थात मौन रहे। शौच-कर्म पूरा करके भी आचमन के अनन्तर जाते समय मौन ही रहे।

शौच के लिये बैठा हुआ पुरुष अपने सामने मृत्तिका और जल पात्र रखे। धीर पुरुष कमण्डलु को हाथ में लिये हुए दाहिने पार्श्व और उरु के मध्य देश में रखे और सावधानी के साथ धीरे-धीरे मूत्र त्याग करे, जिससे अपने किसी अंग पर उसका छींटा न पड़े। तत्पश्चात हाथ से विधिपूर्वक शुद्ध जल लेकर मूत्रस्थान (उपस्थ) को ऐसी सावधानी के साथ धोये, जिससे उसमें मूत्र की बूंदें न लगी रह जायें तथा अशुद्ध हाथ से दोनों जांघों का भी स्पर्श न करे।

यदि मल त्याग किया गया हो तो गुदा भाग को धोते समय उसमें क्रमश: तीन बार मिट्टी लगाएँ। गुदा को शुद्ध करने के लिये बारंबार इस प्रकार धोना चाहिये कि जल का आघात कपड़े में न लगे। जिसका कपड़ा मल से दूषित हो गया है, ऐसे पुरुष के लिये द्विगुण शौच का विधान है। उसे दोनों पैरों, दोनों जांघों और दोनों हाथों की विशेष शुद्धि अवश्‍य करनी चाहिये। शौच का पालन न करने से शरीर-शुद्धि के विषय में संदेह बना रहता है। अतः जिस-जिस प्रकार से शरीर शुद्धि हो, वैसे-ही-वैसे कार्य करने की चेष्टा करे।

मिट्टी के साथ क्षार और रेह मिलाकर उसके द्वारा वस्त्र की शुद्धि करनी चाहिये। जिसमें कोई अपवित्र वस्तु लग गयी हो, उस वस्त्र से उस वस्तु का लेप मिट जाये और उसकी दुर्गन्ध दूर हो जाये, ऐसी शुद्धि का सम्पादन आवश्‍यक होता है। आपत्तिकाल में चार, तीन, दो अथवा एक बार मृत्तिका लगानी चाहिये। देश और काल के अनुसार शौचाचार में गौरव अथवा लाघव किया जा सकता है। इस विधि से प्रतिदिन आलस्य का परित्याग करके शौच (शुद्धि) का सम्पादन करे तथा शुद्धि का सम्पादन करने वाला पुरुष दोनों पैरों को धोकर इधर-उधर दृष्टि न डालता हुआ बिना किसी घबराहट के चला जाये। पहले पैरों को भलि-भाँति धोकर, फिर कलाई से लेकर समूचे हाथ को ऊपर से नीचे तक धो डाले। इसके बाद हाथ में जल लेकर आचमन करे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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