महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 18 श्लोक 49-70

अष्टादश (18) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

Prev.png

महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्टादश अध्याय: श्लोक 49-70 का हिन्दी अनुवाद


मुने! तुम्हारा यह शरीर धर्म के चौथे पाद सत्य से उत्पन्न हुआ है। अतः तुम अनुपम सत्यवादी होओगे। जाओ, अपना जन्म सफल करो। ब्रह्मन! तुम्हें बिना किसी विघ्न-बाधा के सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान का सौभाग्य प्राप्त होगा। मैं तुम्हारे लिये अक्षय एवं तेजस्वी स्वर्गलोक प्रदान करता हूँ।"

महाराज! ऐसा कहकर कृत्तिवासा, महातेजस्वी, वृषभवाहन तथा वरणीय सुरश्रेष्ठ भगवान महेश्वर अपने गणों के साथ वहीं अन्तर्धान हो गये। गालव जी ने कहा- "राजन! विश्वामित्र मुनि की आज्ञा पाकर मैं अपने पिता जी का दर्शन करने के लिये घर पर आया। उस समय मेरी माता वैधव्य के दुःख से दुःखी हो जोर-जोर से रोती हुई मुझसे बोली- 'तात! अनघ! कौशिक मुनि की आज्ञा लेकर घर पर आये हुए वेदविद्या से विभूषित तुझ तरुण एवं जितेन्द्रिय पुत्र को तुम्हारे पिता नहीं देख सके।' माता की बात सुनकर मैं पिता के दर्शन से निराश हो गया और मन को संयम में रखकर महादेव जी की आराधना करके उनका दर्शन किया। उस समय वे मुझसे बोले- 'वत्स’! तुम्हारे पिता, माता और तुम तीनों ही मृत्यु से रहित हो जाओगे। अब तुम अपने घर में शीघ्र प्रवेश करो। वहाँ तुम्हें पिता का दर्शन प्राप्त होगा।'

तात युधिष्ठिर! भगवान शिव की आज्ञा से मैंने पुनः घर जाकर वहाँ यज्ञ करके यज्ञशाला से निकले हुए पिता का दर्शन किया। वे उस समय समिधा, कुश और वृक्षों से अपने आप गिरे हुए पके फल आदि हव्य पदार्थ लिये हुए थे। पांडुनन्दन! उन्हें देखते ही मैं उनके चरणों में पड़ गया; फिर पिता जी ने भी उन समिधा आदि वस्तुओं को अलग रखकर मुझे हृदय से लगा लिया और मेरा मस्तक सूंघकर नेत्रों के आंसू बहाते हुए मुझसे कहा- 'बेटा! बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम विद्वान होकर घर आ गये और मैंने तुम्हें भर आंख देख लिया।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! मुनियों के कहे हुए महादेव जी के ये अद्भुत चरित्र सुनकर पांडुनन्दन युधिष्ठिर को बड़ा विस्मय हुआ। फिर बुद्धिमानों में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण ने धर्मनिधि युधिष्ठिर से उसी प्रकार कहा जैसे श्रीविष्णु देवराज इन्द्र से कोई बात कहा करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण बोले- "राजन! सूर्य के समान तपते हुए-से तेजस्वी उपमन्यु ने मेरे समीप कहा था कि जो पापकर्मी मनुष्य अपने अशुभ आचरणों से कलुशित हो गये हैं, वे तमोगुणी या रजोगुणी वृत्ति के लोग भगवान शिव की शरण नहीं लेते हैं। जिनका अन्तःकरण पवित्र है, वे ही द्विज महादेव जी की शरण लेते हैं। जो परमेश्वर शिव का भक्त है, वह सब प्रकार से बर्तता हुआ भी पवित्र अन्तःकरण वाले वनवासी मुनियों के समान है। भगवान रुद्र संतुष्ट हो जायें तो वे ब्रह्मपद, विष्णुपद, देवताओं सहित देवेन्द्र पद अथवा तीनों लोकों का आधिपत्य प्रदान कर सकते हैं।

तात! जो मनुष्य मन से भी भगवान शिव की शरण लेते हैं, वे सब पापों का नाश करके देवताओं के साथ निवास करते हैं। बारंबार तालाब के तटभूमि को खोद-खोदकर उन्हें चौपट कर देने वाला और इस सारे जगत को जलती आग में झोंक देने वाला पुरुष भी यदि महादेव जी की आराधना करता है तो वह पाप से लिप्त नहीं होता है। समस्त लक्षणों से हीन अथवा सब पापों से युक्त मनुष्य भी यदि अपने हृदय से भगवान शिव का ध्यान करता है तो वह अपने सारे पापों को नष्ट कर देता है। केशव! कीट, पतंग, पक्षी तथा पशु भी यदि महादेव जी की शरण में आ जायें तो उन्हें भी कहीं किसी का भय नहीं प्राप्त होता है। इसी प्रकार इस भूतल पर जो मानव महादेव जी के भक्त हैं, वे संसार के अधीन नहीं होते, यह मेरा निश्चित विचार है।' तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं भी धर्मपुत्र युधिष्ठिर कहा।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः