महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-57

पंचचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-57 का हिन्दी अनुवाद


जो सर्वत्र समान भाव रखते हुए सर्दी-गर्मी और हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वों को सहन करे, वही मुनि है। भूख-प्यास के वशीभूत न हो, उचित भोगों से भी अपने मन को हटा ले, संकल्पजनित ग्रन्थियों को त्याग दे और सदा ध्यान में तत्पर रहे। कुंडी, चमस (प्याली), छींका, छाता, लाठी, जूता और वस्त्र- इन वस्तुओं में भी अपना स्वामित्व स्थापित न करे। गुरु से पहले उठे और उनसे पीछे सोवे। स्वामी (गुरु) को सूचित किये बिना किसी आवश्यक कार्य के लिये भी न जाये। प्रतिदिन दिन में दो बार दोनों संध्याओं के समय वस्त्र सहित स्नान करे। उसके लिये चौबीस घंटे में एक समय भोजन का विधान है। पूर्वकाल के यतियों ने ऐसा ही किया है। सर्वत्र भिक्षा ग्रहण करे, रात में सदा परमात्मा का चिन्तन करे, कोप का कारण प्राप्त होने पर भी कभी कुपित न हो।

ब्रह्मचर्य, वनवास, पवित्रता, इन्द्रियसंयम और समस्त प्राणियों पर दया- यह संन्यासी का सनातन धर्म है। वह समस्त पापों से दूर रहकर हल्का भोजन करे, इन्द्रियों को संयम में रखे और परमात्मचिन्तन में लगा रहे। इससे उसे पापनाशिनी श्रेष्ठ बुद्धि प्राप्त होती है। जब मन, वाणी और क्रिया द्वारा किसी भी प्राणी के प्रति पापभाव नहीं करता, तब वह यति ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। निष्ठुरताशून्य, अहंकाररहित, द्वन्द्वातीत और मात्सर्यहीन यति शोक, भय और बाधा से रहित हो सर्वोत्तम ब्रह्मपद को प्राप्त होता है। जिसकी दृष्टि में निन्दा और स्तुति समान है, जो मौन रहता है, मिट्टी के ढेले, पत्थर और सुवर्ण को समान समझता है तथा जिसका शत्रु और मित्र के प्रति समभाव है, वह निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त होता है। ऐसे आचरण से युक्त, तत्पर और अध्यात्मचिन्तनशील यति उसी ज्ञानाभ्यास से परमगति को प्राप्त कर लेता है।

इस संसार-मण्डल में जिस प्राणी की बुद्धि उद्वेगशून्य है, वह शोक, व्याधि और वृद्धावस्था के दु:खों से मुक्त हो निर्वाण को प्राप्त होता है। इसलिये संसार से वैराग्य उत्पन्न कराने वाले और मन को स्थिर रखने वाले ज्ञान का तुम्हारे लिये उपदेश करूँगा, क्योंकि अमृत (मोक्ष) का मूल कारण ज्ञान ही है। शोक के सहस्रों और भय के सैकड़ों स्थान हैं। वे मूर्ख मनुष्य पर ही प्रतिदिन प्रभाव डालते हैं, विद्वान पर नहीं। धन नष्ट हो जाये अथवा स्त्री, पुत्र या पिता की मृत्यु हो जाये, तो ‘अहो! मुझ पर बड़ा भारी दु:ख आ गया।’ ऐसा सोचता हुआ मनुष्य शोक के आश्रय में आ जाता है। किसी भी द्रव्य के नष्ट हो जाने पर जो उसके शुभ गुण हैं, उनका चिन्तन न करे। उन गुणों का आदर न करने वाले पुरुष के शोक का बन्धन नष्ट हो जाता है। अप्रिय वस्तु का संयोग और प्रिय वस्तु का वियोग प्राप्त होने पर अल्पबुद्धि मनुष्य मानसिक दु:खों से संयुक्त हो जाते हैं।

जो मरे हुए पुरुष या खोयी हुई वस्तु के लिये शोक करता है, वह केवल संताप का भागी होता है। उसका वह दु:ख मिटता नहीं है। मनुष्य-योनि में उत्पन्न हुए मानव के पास गर्भावस्था से ही नाना प्रकार के दु:ख और सुख आते रहते हैं। उनमें से कोई एक मार्ग यदि इसे प्राप्त हो तो यह मनुष्य सुख पाकर हर्ष न करे और दु:ख पाकर चिन्तित न हो। जहाँ आसक्ति हो रही हो, वहाँ दोष देखना चाहिये। उस वस्तु को अनिष्ट की दृष्टि से देखे, जिससे उसकी ओर से शीघ्र ही वैराग्य हो जाये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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