महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-52

पंचचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-52 का हिन्दी अनुवाद


जिस धन का त्याग करना अत्यन्त कठिन हो, उसे सुपात्र को देना ‘आनन्त्य’ कहलाता है अर्थात उस दान का फल अनन्त-अक्षय होता है। पूर्वोक्त छः गुणों से युक्त जो दान है, उसी को ‘महान’ कहा गया है। जैसी अपनी श्रद्धा हो उसी के अनुसार यथायोग्य दान देना ‘सम’ कहलाता है। गुणहीन दान को ‘हीन’ कहा गया है। यदि पूर्वोक्त छः गुणों के विपरीत दान किया जाये तो वह ‘पातक’ रूप कहा गया है। 'आनन्त्य' या ‘अनन्त’ नामक दान का फल देवलोक में दीर्घ काल तक भोगा जाता है। महद् दान का फल यह है कि मनुष्य स्वर्गलोक में अधिक काल तक पूजित होता है। सम-दान मनुष्यलोक का भोग प्रस्तुत करता है।

शुभे! क्रिया से हीन दान निष्फल बताया गया है अथवा म्लेच्छ देशों में जन्म लेकर मनुष्य वहाँ उसका फल पाता है। अशुभ दान से पाप लगता है और उसका फल भोगने के लिये वह दाता मृत्यु के पश्चात् नरक या तिर्यक योनियों में जाता है।

उमा ने पूछा- भगवन! अशुभ दान का भी फल शुभ कैसे होता है?

श्रीमहेश्वर ने कहा- प्रिये! जो दान शुद्ध हृदय से अर्थात निष्काम भाव से दिये जाने के कारण तत्त्वतः शुद्ध हो, जिसमें क्रूरता का अभाव हो, जो दयापूर्वक दिया गया हो, वह शुभ फल देने वाला है। सभी प्रकार के दानों को प्रसन्नता के साथ देकर दाता शुभ फल का भागी होता है। शुभेक्षणे! इसी को तुम सम्पूर्ण दानों का रहस्य समझो। अब सत्पुरुषों द्वारा किये गये अन्य धर्म कार्यों का वर्णन सुनो।

बगीचा लगाना, देवस्थान बनाना, पुल और कुआँ का निर्माण करना, गोशाला, पोखरा, धर्मशाला, सबके लिये घर, पाखण्डी तक को भी आश्रय देना, पानी पिलाना, गौओं को घास देना, रोगियों के लिये दवा और पथ्य की व्यवस्था करना, अनाथ बालकों का पालन-पोषण करना, अनाथ मुर्दों का दाह संस्कार कराना, तीर्थ मार्ग का शोधन करना, अपनी शक्ति के अनुसार सभी के संकटों को दूर करने का प्रयत्न करना- यह सब संक्षेप से धर्म कार्य बताया गया।

शुभे! मनुष्य को अपनी शक्ति के अनुसार श्रद्धापूर्वक यह धर्म कार्य करना चाहिये। यह सब करने से मृत्यु के पश्चात मनुष्य को पुण्य प्राप्त होता है, इसमें विचार करने की आवश्यकता नहीं है। वह धर्मात्मा पुरुषरूप, सौभाग्य, आरोग्य, बल और सुख पाता है। वह स्वर्गलोक में रहे या मनुष्यलोक में, उन-उन पुण्यफलों से तृप्त होता रहता है।

उमा ने पूछा- भगवन! लोकपालेश्वर! धर्म के कितने भेद हैं? साधु पुरुष सब ओर कितने भेद देखते हैं? यह मुझे बताइये।

श्रीमहेश्वर ने कहा- स्मृतिकथित धर्म अनेक प्रकार का है। श्रेष्ठ पुरुषों को आचार धर्म अभीष्ट होता है। शोभने! देश-धर्म, कुल, धर्म, जाति-धर्म तथा समुदाय धर्म भी दृष्टिगोचर होते हैं। शरीर और काल की विषमता से आपद्धर्म भी देखा जाता है। इस जगत में रहने वाले मनुष्य ही धर्म के ये नाना भेद करते हैं। कारण का संयोग होने पर धर्माचरण करने वाला मनुष्य उस धर्म के फल को प्राप्त करता है। धर्मों में जो श्रौत (वेद-कथित) और स्मार्त (स्मृति-कथित) धर्म है, उसे प्रकृत धर्म कहते हैं। देवि! इस प्रकार तुम्हें धर्म की बात बतायी गई। अब और क्या सुनना चाहती हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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