पंचचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-28 का हिन्दी अनुवाद
श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! मैं तुम्हें तत्त्व की बात बता रहा हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। मनुष्यों में दो प्रकार का कर्म देखा जाता है, उसे सुनो। इनमें एक तो पूर्वकृत कर्म है और दूसरा इहलोक में किया गया है। अब मैं दैव और मनुष्य दोनों से सम्पादित होने वाले लौकिक कर्म का वर्णन करता हूँ। कृषि में जो जुताई, बोवाई, रोपनी, कटनी तथा ऐसे ही और भी जो कार्य देखे जाते हैं, वे सब मानुष कहे गये हैं। दैव से उस कर्म में सफलता और असफलता होती है। मानुष कर्म में बुराई भी सम्भव है। उत्तम प्रयत्न करने से कीर्ति प्राप्त होती है और बुरे उपायों के अवलम्बन से अपयश। देवि! आदिकाल से ही जगत की ऐसी ही अवस्था है। बीज का रोपना और काटना आदि मनुष्य का काम है, परंतु समय पर वर्षा होना, बोवाई का सुन्दर परिणाम निकलना, बीज में अंकुर उत्पन्न होना और शस्य का श्रेणीबद्ध होकर प्रकट होना इत्यादि कार्य देवसम्बन्धी बताये गये हैं। दैव की अनुकूलता से ही इन कार्यों का सम्पादन होता है। पंचभूतों की स्थिति, ग्रह-नक्षत्रों का चलना-फिरना तथा जहाँ मनुष्यों की बुद्धि न पहुँच सके अथवा किन्हीं कारणों या युक्तियों से भी समझ में न आ सके- ऐसा कर्म शुभ हो या अशुभ दैव माना जाता है और जिस बात को मनुष्य स्वयं कर सके, उसे पौरुष कहा गया है। केवल दैव या पुरुषार्थ से फल की सिद्धि नहीं होती। प्रिये! प्रत्येक वस्तु या कार्य एक ही साथ पुरुषार्थ और दैव दोनों से ही गुँथा हुआ है। दैव और पुरुषार्थ दोनों के समानकालिक सहयोग से कर्म सम्पन्न होता है। जैसे एक ही काल में सर्दी और गर्मी दोनों होती हैं, उसी प्रकार एक ही समय दैव और पुरुषार्थ दोनों काम करते हैं। इन दोनों में जो पुरुषार्थ है, उसका आरम्भ विज्ञ पुरुष को पहले करना चाहिये। जो अपने-आप होना सम्भव नहीं है, उसको आरम्भ करने से मनुष्य कीर्ति का भागी होता है। जैसे लोक में भूमि खोदने से जल तथा काष्ठ का मन्थन करने से अग्नि की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार पुरुषार्थ करने पर दैव का सहयोग स्वतः प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य कर्म नहीं करता, उसको दैवी सहायता नहीं प्राप्त होती, अतः समस्त कार्यों का आरम्भ दैव और पुरुषार्थ दोनों पर निर्भर है। उमा ने पूछा- भगवन! सर्वलोकेश्वर! लोकनाथ! वृषध्वज! कर्मों का फल भोगने वाले जीवात्मा नामक किसी द्रव्य की सत्ता नहीं है, इसलिये मरा हुआ जीव फिर जन्म नहीं लेता है। जैसे वृक्ष से फल पैदा होता है, उसी प्रकार स्वभाव से ही सब कुछ उत्पन्न होता है और जैसे समुद्र से लहरें प्रकट होती हैं, उसी प्रकार स्वभाव से ही जगत की आकृति प्रकट होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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