महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 115 श्लोक 33-49

पंचदशाधिकशततम (115) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 33-49 का हिन्दी अनुवाद


लोभ से, बुद्धि के मोह से, बल-वीर्य की प्राप्ति के लिये अथवा पापियों के संसर्ग में आने से मनुष्‍यों की अधर्म में रुचि हो जाती है। जो दूसरों के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है, वह जहाँ कहीं भी जन्‍म लेता है, चैन से नहीं रह पाता है। नियमपरायण महर्षियों ने मांस-भक्षण के त्‍याग को ही धन, यश, आयु तथा स्‍वर्ग की प्राप्ति का प्रधान उपाय और परम कल्‍याण का साधन बतलाया है।

कुन्‍तीनन्‍दन! मांस भक्षण में जो दोष हैं, उन्‍हें बतलाते हुए मार्कण्‍डेय जी के मुख से मैंने पूर्वकाल में ऐसा सुन रखा है। जो जीवित रहने की इच्‍छा वाले प्राणियों को मार कर अथवा उनके स्‍वयं मर जाने पर उनका मांस खाता है, वह न मारने पर भी उन-उन प्राणियों का हत्‍यारा ही समझा जाता है। खरीदने वाला धन के द्वारा, खाने वाला उपभोग के द्वारा और घातक वध एवं बन्‍धन के द्वारा पशुओं की हिंसा करता है। इस प्रकार यह तीन तरह से प्राणियों का वध होता है। जो मांस को स्‍वयं नहीं खाता, पर खाने वाले का अनुमोदन करता है, वह मनुष्‍य भी भाव-दोष के कारण मांस भक्षण के पाप का भागी होता है। इसी प्रकार जो मारने वाले का अनुमोदन करता है, वह भी हिंसा के दोष से लिप्‍त होता है।

जो मनुष्‍य मांस नहीं खाता और इस जगत में सब जीवों पर दया करता है, उसका कोई भी प्राणी तिरस्‍कार नहीं करते और वह सदा दीर्घ आयु एवं नीरोग होता है। सुवर्णदान, गोदान और भूमिदान करने से जो धर्म प्राप्‍त होता है, मांस का भक्षण न करने से उसकी अपेक्षा भी विशिष्‍ट धर्म की प्राप्ति होती है। यह हमारे सुनने में आया है। जो मांस खाने वालों के लिये पशुओं की हत्‍या करता है, वह मनुष्‍यों में अधम है। घातक को बहुत भारी दोष लगता है। मांस खाने वाले को उतना दोष नहीं लगता। जो मांस लोभी मूर्ख एवं अधम मनुष्‍य यज्ञ-याग आदि वैदिक मार्गों के नाम पर प्राणियों की हिंसा करता है, वह नरकगामी होता है। जो पहले मांस खाने के बाद फिर उससे निवृत्त हो जाता है, उसको भी अत्‍यन्‍त महान धर्म की प्राप्ति होती है, क्‍योंकि वह पाप से निवृत्त हो गया है। जो मनुष्‍य हत्‍या के लिये पशु लाता है, जो उसे मारने की अनुमति देता है, जो उसका वध करता है तथा जो खरीदता, बेचता, पकाता और खाता है, वे सब-के-सब खाने वाले ही माने जाते हैं। अर्थात वे सब खाने वाले के समान ही पाप के भागी होते हैं।

अब मैं इस विषय में एक दूसरा प्रमाण बता रहा हूँ, जो साक्षात ब्रह्मा जी के द्वारा प्रतिपादित, पुरातन, ऋर्षियों द्वारा सेवित तथा वेदों में प्रतिष्ठित है।

नृपश्रेष्‍ठ! प्रजार्थी पुरुषों ने प्रवृत्तिरूप धर्म का प्रतिपादन किया है, परन्‍तु वह मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले विकृत पुरुषों के लिये अभीष्‍ट नहीं है। जो मनुष्‍य अपने आप को अत्‍यन्‍त उपद्रवरहित बनाये रखना चाहता हो, वह इस जगत में प्राणियों के मांस का सर्वथा परित्‍याग कर दे। सुना है, पूर्वकल्‍प में मनुष्‍यों के यज्ञ में पुरोडाश आदि के रूप में अन्‍नमय पशु का ही उपयोग होता था। पुण्‍यलोक की प्राप्ति के साधनों में लगे रहने वाले याज्ञिक पुरुष उस अन्‍न के द्वारा ही यज्ञ करते थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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