संशय (महाभारत संदर्भ)

  • न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति।[1]

प्राण संशय में डाले बिना किसी का कल्याण नहीं होता।

  • संशयस्यांते मन: संतुष्टिमावहेत्।[2]

संशय का अंत होने पर मन को संतुष्टि मिले।

  • समाकुलेषु ज्ञानेषु न बुद्धिकृतमेव तत्।[3]

संदिग्ध कार्यों में सलग्न होना बुद्धिमान् का काम नहीं।

  • अनर्था: संशयावस्था:।[4]

संशय की स्थिति में रहने से अनर्थ हो जाता है।

  • सिद्धयंते मुक्तसंशया:।[5]

संशय रहित को सिद्धि मिलती है।

  • धीरा नरा: कर्मरता ननु नि:संशया: क्वचित्।[6]

कर्मपरायण और संशयरहित धैर्यवान् लोग कहीं-कहीं ही मिलते हैं।

  • जीवितं ह्यातुरस्येव दु:खमंतरवर्तिन:।[7]

जो कहीं बीच (संशय) में पड़ा है वह रोगी की तरह दु:खी ही रहता है।

  • श्रेयान्नि:संशयो नर:।[8]

संशय रहित नर श्रेष्ठ है।

  • संशयात्मा विनश्यति।[9]

संशय करने वाले का विनाश होता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत 139.73
  2. आदिपर्व महाभारत 194.5
  3. आदिपर्व महाभारत 230.12
  4. वनपर्व महाभारत 32.43
  5. वनपर्व महाभारत 32.43
  6. वनपर्व महाभारत 32.43
  7. वनपर्व महाभारत 33.44
  8. उद्योगपर्व महाभारत 178.54
  9. भीष्मपर्व महाभारत 28.40

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