संशय (महाभारत संदर्भ) 2

  • नायं लोकाकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन:।[1]

संशय करने वाले के लिये न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है।

  • असंशयं पुण्यशील: प्राप्नोति परमां गतिम्।[2]

पुण्यशील परम गति प्राप्त करता है इसमें संशय नहीं।

  • ज्ञानमप्यपदिश्यं हि यथा नास्ति तथैव तत्।[3]

छल या संशय वाले ज्ञान का होना न होने के समान है।

  • न शोचेच्छिन्नसंशय:।[4]

संशयरहित मनुष्य शोक नहीं करता।

  • नि:संशयेषु सर्वेषु नित्यं वसति वै हरि:।[5]

संशयरहित मनुष्यों में भगवान् विष्णु रहते है।

  • नाधर्मेण न धर्मेण बध्यंते छिन्नसंशया:।[6]

जिनके सब संशय दूर हो गये है वे धर्म और अधर्म के बंधन में नहीं आते

  • संशय: सुगमस्तत्र दुर्गमस्मत्र निर्णय:।[7]

संशय करना तो सरल है, निर्णय करना ही कठिन है।

  • दृष्टं श्रुतमनंतं हि यत्र संशयदर्शनम्।[8]

बहुत कुछ देखा और सुना जाता है उसमें संशय होना सम्भव है।

  • न वाच्यं ह्येकेन बहुज्ञेनापिसंशये।[9]

संशय में किसी महाज्ञानी को भी अकेले ही निर्णय नहीं देना चाहिये।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भीष्मपर्व महाभारत 28.40
  2. शांतिपर्व महाभारत 105.19
  3. शांतिपर्व महाभारत 142.23
  4. शांतिपर्व महाभारत 194.52
  5. शांतिपर्व महाभारत 349.71
  6. अनुशासनपर्व महाभारत 144.6
  7. अनुशासनपर्व महाभारत 162.4
  8. अनुशासनपर्व महाभारत 162.4
  9. आश्वमेधिकपर्व महाभारत 91.24

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