- नायं लोकाकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन:।[1]
संशय करने वाले के लिये न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है।
- असंशयं पुण्यशील: प्राप्नोति परमां गतिम्।[2]
पुण्यशील परम गति प्राप्त करता है इसमें संशय नहीं।
- ज्ञानमप्यपदिश्यं हि यथा नास्ति तथैव तत्।[3]
छल या संशय वाले ज्ञान का होना न होने के समान है।
- न शोचेच्छिन्नसंशय:।[4]
संशयरहित मनुष्य शोक नहीं करता।
- नि:संशयेषु सर्वेषु नित्यं वसति वै हरि:।[5]
संशयरहित मनुष्यों में भगवान् विष्णु रहते है।
- नाधर्मेण न धर्मेण बध्यंते छिन्नसंशया:।[6]
जिनके सब संशय दूर हो गये है वे धर्म और अधर्म के बंधन में नहीं आते
- संशय: सुगमस्तत्र दुर्गमस्मत्र निर्णय:।[7]
संशय करना तो सरल है, निर्णय करना ही कठिन है।
- दृष्टं श्रुतमनंतं हि यत्र संशयदर्शनम्।[8]
बहुत कुछ देखा और सुना जाता है उसमें संशय होना सम्भव है।
- न वाच्यं ह्येकेन बहुज्ञेनापिसंशये।[9]
संशय में किसी महाज्ञानी को भी अकेले ही निर्णय नहीं देना चाहिये।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 28.40
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 105.19
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 142.23
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 194.52
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 349.71
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 144.6
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 162.4
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 162.4
- ↑ आश्वमेधिकपर्व महाभारत 91.24
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