सप्तसप्ततितम (77) अध्याय: सभा पर्व (अनुद्यूत पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: सप्तसप्ततितम अध्याय: श्लोक 30-46 का हिन्दी अनुवाद
भीमसेन बोले- यह भूमि दुर्योधन, कर्ण, दुरात्मा शकुनि तथा चौथे दु:शासन के रक्त का निश्चय ही पान करेगी। अर्जुन ने कहा- भैया भीमसेन! जो हम लोगों के दोष ही ढूँढ़ा करता है, हमारे दु:ख देखकर प्रसन्न होता है, कौरवों को बुरी सलाहें देता है और व्यर्थ बढ़-बढ़कर बातें बनाता है, उस कर्ण को मैं आपकी आज्ञा से अवश्य युद्ध में मार डालूँगा। अपने भाई भीमसेन का प्रिय करने की इच्छा से अर्जुन यह प्रतिज्ञा करता है कि ‘मैं युद्ध में कर्ण और उसके अनुगामियों को भी बाणों द्वारा मार डालूँगा’। दूसरे भी जो नरेश बुद्धि के व्यामोहवश हमारे विपक्ष में होकर युद्ध करेंगे, उन सबको अपने तीक्ष्ण सायकों द्वारा मैं यमलोक पहुँचा दूँगा। यदि मेरा सत्य विचलित हो जाय तो हिमालय पर्वत अपने स्थान से हट जाये, सूर्य की प्रभा नष्ट हो जाय और चन्द्रमा से उसकी शीतलता दूर हो जाय (अर्थात् जैसे हिमालय अपने स्थान से नहीं हट सकता, सूर्य की प्रभा नष्ट नहीं हो सकती, चन्द्रमा से उसकी शीतलता दूर नहीं हो सकती, वैसे ही मेरे वचन मिथ्या नहीं हो सकते)। यदि आज से चौहदवें वर्ष में दुर्योधन सत्कारपूर्वक हमारा राज्य हमें वापस न दे देगा तो ये सब बातें सत्य होकर रहेंगी। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! अर्जुन के ऐसा कहने पर परम सुन्दर प्रतापी वीर माद्रीनन्दन सहदेव ने अपनी विशाल भुजा ऊपर उठाकर शकुनि के वध की इच्छा से इस प्रकार कहा; उस समय उनके नेत्र क्रोध से लाल हो रहे थे और वे फुँफकारते हुए सर्प की भाँति उच्छ्वास ले रहे थे। सहदेव ने कहा- ओ गान्धारनिवासी क्षत्रियकुल के कलंक मूर्ख शकुने! जिन्हें तू पासे समझ रहा है, वे पासे नहीं है, उनके रूप में तूने यद्ध में तीखे बाणों का वरण किया है। आर्य भीमसेन ने बन्धु-बान्धवों सहित तेरे विषय में जो बात कही हैं, मैं अवश्य पूर्ण करूँगा। तुझे अपने बचाव-के लिये जो कुछ करना हो, वह सब कर डाल। सुबलकुमार! यदि तू क्षत्रियधर्म के अनुसार संग्राम में डटा रह जायेगा, तौ मैं वेगपूर्वक तुझे तेरे बन्धु-बान्धवों-सहित अवश्य मार डालूँगा। राजन्! सहदेव की बात सुनकर मनुष्यों में परम दर्शनीय रूप वाले नकुल ने भी यह बात कही। नकुल बोले- दुर्योधन के प्रियसाधन में लगे हुए जिन धृतराष्ट्रपुत्रों ने इस द्यूमसभा में द्रुपदकुमारी कृष्णा को कठोर बातें सुनायी हैं, काल से प्रेरित हो मौत के मुँह में जाने की इच्छा रखने वाले उन दुराचारी बहुसंख्यक धृतराष्ट्रकुमारों को मैं यमलोक का अतिथि बना दूँगा। धर्मराज की आज्ञा से द्रौपदी का प्रिय करते हुए मैं सारी पृथ्वी को धृतराष्ट्र-पुत्रों से सूनी कर दूँगा; इसमे अधिक देर नहीं है। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! इस प्रकार वे सभी पुरुष सिंह महाबाहु पाण्डव बहुत-सी प्रतिज्ञाएँ करके राजा धृतराष्ट्र के पास गये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत अनुद्यूत पर्व में पांडवों की प्रतिज्ञा से सम्बंध रखने वाला सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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