अष्टात्रिंश (38) अध्याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 3 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर भीष्म जी का वह समयोचित वचन सुनकर कौरवनन्दन बुद्धिमान युधिष्ठिर ने उनसे इस प्रकार कहा। युधिष्ठिर बोले- पितामह! मैं इन भगवान श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों को विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ। आप उन्हें कृपापूर्वक बतावें। पितामह! भगवान के अवतारों और चरित्रों का क्रमश: वर्णन कीजिये। साथ ही मुझे यह भी बताइये कि श्रीकृष्ण का शील स्वभाव कैसा है? वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उस समय युधिष्ठिर के इस प्रकार अनुरोध करने पर भीष्म ने राजाओं के उस समुदाय में देवराज इन्द्र के समान सुशोभित होने वाले भगवान वासुदेव के सामने ही शत्रुहन्ता भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर से भगवान श्रीकृष्ण के अलौकिक कर्मों का, जिन्हें दूसरा कोई कदापि नहीं कर सकता, वर्णन किया। धर्मराज के समीप बैठे हुए सम्पूर्ण नरेश उनकी यह बात सुन रहे थे। राजन्! बुद्धिमानों में श्रेष्ठ भीमकर्मा भीष्म ने शत्रुदमन चेदिराज शिशुपाल को सान्त्वनापूर्ण शब्दों में ही समझाकर कुरुराज युधिष्ठिर से पुन: इस प्रकार कहना आरम्भ किया। भीष्म बोले- राजा युधिष्ठिर! पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य कर्मों की गति बड़ी गहन है। उन्होंने पूर्व काल में और इस समय जो भी महान कर्म किये हैं, उन्हें बताता हूँ, सुनो। ये सर्वशक्तिमान् भगवान अव्यक्त होते हुए भी व्यक्त स्वरूप धारण करके स्थित हैं। पूर्वकाल में ये भगवान श्रीकृष्ण ही नारायण रूप में स्थित थे। ये ही स्वयम्भू एवं सम्पूर्ण जगत के प्रपितामह हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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