अष्टात्रिंश (38) अध्याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 28 का हिन्दी अनुवाद
फिर ब्रह्मा और दक्ष आदि प्रजापतियों ने तथा सम्पूर्ण देवताओं ने उनका भी स्वागत सत्कार किया। उस समय बलराम सहित भगवान केशव ने माता अदिति को दोनों दिव्य कुण्डल और बहुमूल्य रत्न भेंट किये। वह सब ग्रहण करके माता अदिति का मानसिक दु:ख दूर हो गया और उन्होंने इन्द्र के छोटे भाई यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण और बलराम का बहुत आदर सत्कार किया। इन्द्र की महारानी शची ने उस समय भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी सत्यभामा का हाथ पकड़कर उन्हें माता अदिति की सेवा में पहुँचाया। देवमाता की सारी चिन्ता दूर हो गयी थी। उन्होंने श्रीकृष्ण का प्रिय करने की इच्छा से सत्यभामा को उत्तम वर प्रदान किया। अदिति बोलीं- सुन्दर मुख वाली बहू! जब तक श्रीकृष्ण मानव शरीर में रहेंगे, तब तक तू वृद्धावस्था को प्राप्त न होगी और सब प्रकार की दिव्य सुगन्ध एवं उत्तम गुणों से सुशोभित होती रहेगी। भीष्म जी कहते हैं- युुधिष्ठिर! सुन्दरी सत्यभाम शचीदेवी के साथ घूम फिरकर उनकी आज्ञा ले भगवान श्रीकृष्ण के विश्रामगृह चली गयीं। तदनन्तर शत्रुओं का दमन करने वाले भगवान श्रीकृष्ण महर्षियों से सेवित और देवताओं द्वारा पूजित होकर देवलोक से द्वारका को चले गये। महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण लंबा मार्ग तय करके उत्तम द्वारका नगरी में, जिसके प्रधान द्वार का नाम वर्धमान था, जा पहुँचे।
भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! सर्वव्यापी नारायण स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण ने सब प्रकार के मनोवाच्छित पदार्थों से भरी-पूरी द्वारकापुरी को देखकर प्रसन्नतापूर्वक उसमें प्रवेश करने की तैयारी की। उन्होंने देखा, द्वारकापुरी के सब ओर बगीचों में बहुत से रमणीय वृक्ष समूह शोभा पा रहे हैं, जिनमें नाना प्रकार के फल और फूल लगे हुए हैं। वहाँ के रमणीय राजसदन सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रकाशमान तथा मेरुपर्वत के शिखरों की भाँति गगनचुम्बी थे। उन भवनों से विभूषित द्वारकापुरी की रचाना साक्षात विश्वकर्मा ने की थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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