त्र्यशीतितम (83) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: त्र्यशीतितम अध्याय: श्लोक 49-57 का हिन्दी अनुवाद
राजा ऐसा प्रयत्न करे कि उसका छिद्र शत्रु न देख सके; परंतु वह शत्रु की सारी दुर्बलताओं को जान ले। जैसे कछुआ अपने सब अंगों को समेटे रहता है, उसी तरह राजा को भी अपने गुप्त विचारों और छिद्रों को छिपाये रखना चाहिये। जो बुद्धिमान मन्त्री है, वे राज्य के गुप्त मन्त्र को छिपाये रखते है; क्योंकि मन्त्र ही राजा का कवच है और सदस्य आदि दूसरे लोग मन्त्रणा के अंग है। विद्वान पुरुष कहते है कि राज्य का मूल है गुप्तचर और उसका सार है गुप्त मन्त्रणा। मन्त्री लोग तो यहाँ अपनी जीविका के लिये ही राजा का अनुसरण करते हैं। जो मद और क्रोध को जीतकर मान और ईर्ष्या से रहित हो गये है तथा जो कायिक, वाचिक, मानसिक, कर्मकृत और संकेतजनित- इन पाँचों प्रकार के छलों को लाँघकर ऊपर उठे हुए है, ऐसे मन्त्रियों के साथ ही राजा को सदा गुप्त मन्त्रणा करनी चाहिये। राजा पहले सदा तीनों मन्त्रियों की पृथक-पृथक सलाह जानकर उस पर मनोयोगपूर्वक विचार करे। तत्पश्चात बाद में होने वाली मन्त्रणा के समय अपने तथा दूसरों के निश्चय को राजगुरु की सेवा में निवेदन करे। राजा सावधान होकर धर्म, अर्थ और काम के ज्ञाता ब्राह्मणगुरु के समीप जा उनका उत्तर जानने के लिये उनकी राय पूछे। जब वे कोई निर्णय दे दें और वह सब लोगों को एक मत से स्वीकार हो जाय, तब राजा दूसरे किसी विचार में न पड़कर उसी मन्त्रमार्ग (विचारपद्धति) को कार्यरूप् में परिणत करे। मन्त्रतत्त्व के अर्थ का निश्चयात्मक ज्ञान रखने वाले विद्वान कहते है कि सदा इसी तरह मन्त्रणा करे और जो विचार प्रजा को अपने अनूकूल बनाने में अधिक प्रबल जान पडे, सर्वदा उसे ही काम में ले। जहाँ गुप्त विचार किया जाता हो, वहाँ या उसके अगल-बगल, आगे-पीछे, और ऊपर-नीचे भी किसी तरह बौने, कुबडे, दुबले, लँगडे, अन्धे, गूँगे, स्त्री और हीजडे- ये न आने पावें। महल के ऊपरी मंजिल पर चढ़कर अथवा सूने एवं खुले हुए समतल मैदान में जहाँ कुश-कास घास-पात बढे हुए न हों, ऐसी जगह बैठकर वाणी और शरीर के सारे दोषों का परित्याग करके उपयुक्त समय में भावी कार्य के सम्बन्ध में गुप्त विचार करना चाहिये। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वं के अन्तर्गत राजधर्मांनुशासनपर्वं में सभासद आदि के लक्षणों का कथन विषयक तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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