अष्टाविंश (28) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टाविंश अध्याय: श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद
कोई-कोई पुरुष जो (तपस्या आदि प्रबल पुरुषार्थ के द्वारा) दैव के नियन्त्रण में रहने योग्य नहीं है, वह पूर्वोक्त सेतु का उल्लंघन करता भी दिखायी देता है। इस जगत् में धनवान् मनुष्य भी जवानी में ही नष्ट होता दिखायी देता है और क्लेश में पड़ा हुआ दरिद्र भी सौ वर्षों तक जीवित रहकर अत्यन्त वृद्धावस्था में मरता देखा जाता है। जिनके पास कुछ नहीं है, ऐसे दरिद्र भी दीर्घ जीवी देखे जाते हैं और धनवान् कुल में उत्पन्न हुए मनुष्य भी कीट पतंगों के समान नष्ट होते रहते हैं। जगत् में प्रायः धनवानों को खाने और पचाने की शक्ति ही नहीं रहती है और दरिद्रों में पेट में काठ भी पच जाते हैं। दुरात्मा मनुष्य काल से प्रेरित होकर यह अभिमान करने लगता है कि मैं यह करूँगा। तत्पश्चात् असंतोष वश उसे जो-जो अभीष्ट होता है, उस पापपूर्ण कृत्य को भी वह करने लगता है। विद्वान् पुरुष शिकार करने, जुआ खेलने, स्त्रियों के संसर्ग में रहने और मदिरा पीने के प्रसंगों की बड़ी निन्दा करते हैं, परंतु इन पाप-कर्मों में अनेक शास्त्रों के श्रवण और अध्ययन से सम्पन्न पुरुष भी संलग्न देखे जाते हैं। इस प्रकार काल के प्रभाव से समस्त प्राणी इष्ट और अनिष्ट पदार्थों को प्राप्त करते रहते हैं, इस इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति का अदृष्ट के सिवा दूसरा कोई कारण नहीं दिखायी देता। वायु, आकाश, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, दिन, रात, नक्षत्र, नदी और पर्वतों को काल के सिवा कौन बनाता और धारण करता है? सर्दी, गर्मी और वर्षा का चक्र भी काल से ही चलता है। नरश्रेष्ठ! इसी प्रकार मनुष्यों के सुख-दुःख भी काल से ही प्राप्त होते हैं। वृद्धावस्था और मृत्यु के वश में पड़े हुए मनुष्य को औषध, मन्त्र, होम और जप भी नहीं बचा पाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नीलकण्ठ ने 'प्राप्ति' का अर्थ 'लाभ' और 'व्यायाम का अर्थ उसके विपरीत 'अलाभ' किया है।
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