अष्टपंचादधिकद्विशततम (258) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टपंचादधिकद्विशततम श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
मृत्यु की घोर तपस्या और प्रजापति की आज्ञा से उसका प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना नारद जी कहते हैं- राजन्! तदनन्तर वह विशाल नेत्रों वाली अबला स्वयं ही उस दु:ख को दूर हटाकर झुकायी हुई लता के समान विनम्र हो हाथ जोड़कर ब्रह्मा जी से बोली। ‘वक्ताओं में श्रेष्ठ प्रजापते! (यदि मुझसे क्रूर कर्म ही कराना था तो) आपने मुझ जैसी कोमल हृदया नारी को क्यों उत्पन्न किया? क्या मुझ जैसी स्त्री समस्त प्राणियों के लिये भयंकर तथा क्रूरतापूर्ण कर्म करने वाली हो सकती है? ‘भगवन्! मैं अर्धम से बहुत डरती हॅू। आप मुझे धर्मानुकूल कार्य करने की आज्ञा दें। मुझ भयभीत अबला पर दृष्टिपात करें और कल्याणमयी दृष्टि से मेरी ओर देखें। ‘समस्त प्राणियों के अधीश्वर! मैं निरपराध बाल, वृद्ध और तरुण प्राणियों के प्राण नही लूँगी। आपको नमस्कार है, आप मुझ पर प्रसन्न हों। ‘जब मैं लोगों के प्यारे पुत्रों, मित्रों, भाइयों, माताओं तथा पिताओं को मारने लगॅूगी, तब उनके सम्बन्धी उनके इस प्रकार मारेजाने के कारण मेरा अनिष्ट चिन्तन करेगें; अत: मैं उन लोगों से बहुत डरती हॅू। ‘उन दीन-दुखियों के नेत्रों से जो ऑसू बहकर उनके कपोलों और वक्ष:स्थल को भिगो देगा, वह मुझे सदा अनन्त वर्षों तक जलाता रहेगा। मैं उनसे बहुत डरी हुई हॅू, इसलिये आपकी शरण में आयी हॅू। ‘वरदायक प्रभो! देव! सुना है कि पापाचारी प्राणी यमराज के लोक में गिराये जाते हैं, अत: आप से प्रसन्न होने के लिये प्रार्थना करती हॅू, आप मुझ पर कृपा कीजिये। ‘लोकपितामह! महेश्वर! मैं आपसे अपनी एक अभिलाषा की पूर्ति चाहती हॅू। मेरी इच्छा है कि मैं आप की प्रसन्नता के लिये कहीं जाकर तप करूँ। ब्रह्मा जी ने कहा-मृत्यो! प्रजा के संहार के लिये ही मैंने संकल्पपूर्वक तुम्हारी सृष्टि की है। जाओ, सारी प्रजा का संहार करो। इसके लिये मन में कोई विचार न करो। यह बात अवश्य इसी प्रकार होने वाली है। इसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। निर्दोष अंगो वाली देवि! मैंने जो बात कही है, उसका पालन करो। इससे तुम्हें पाप नहीं लगेगा। महाबाहो! शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले नरेश! ब्रह्मा जी के ऐसा कहने पर मृत्यु उन्हीं की ओर मुँह करके हाथ जोडे़ खडी़ रह गयी-कुछ बोल न सकी। उनके बारंबार कहने पर वह मानिनी नारी निष्प्राण-सी होकर मौन रह गयी। ‘हाँ’ या ‘ना’ कुछ भी न बोल सकी। तदनन्तर देवताओं के भी देवता और ईश्वरों के भी ईश्वर लोकनाथ ब्रह्मा जी स्वयं ही अपने मन में बड़े प्रसन्न हुए और मुस्कराते हुए समस्त लोकों की ओर देखने लगे। उन अपराजित भगवान् ब्रह्मा का रोष निवृत्त हो जाने पर वह कन्या भी उनके निकट से चली गयी, ऐसा हमने सुना है। राजेन्द्र! उस समय प्रजा का संहार करने के विषय में कोई प्रतिज्ञा न करके मृत्यु वहाँ से हट गयी और बडी़ उतावली के साथ धेनकाश्रम में जा पहॅुची। वहाँ मृत्यु देवी ने अत्यन्त दुष्कर और उत्तम तपस्या की। वह पंद्रह पद्म वर्षों तक एक पैर पर खडी़ रही। इस प्रकार वहाँ अत्यन्त दुष्कर तपस्या करती हुई मृत्यु से महातेजस्वी ब्रह्मा जी ने पुन: जाकर इस प्रकार कहा। ‘मृत्यो! तुम मेरी आज्ञा का पालन करो।’ दूसरों को मान देने वाले तात! उनके इस कथन का आदर न करके मृत्यु ने तुरंत ही दूसरे बीस पद्म वर्षों तक पुन: एक पैर पर खडी़ हो तपस्या आरम्भ कर दी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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