चतुरधिकशततम (104) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: चतुरधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- महामुने! विन्ध्य पर्वत किसलिये क्रोध से मूर्च्छित हो सहसा बढ़ने लगा था? मैं इस प्रसंग को विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ। लोमश जी ने कहा– राजन्! सूर्यदेव सुवर्णमय महान् पर्वत गिरिराज मेरु की उदय और अस्त के समय परिक्रमा किया करते हैं। उन्हें ऐसा करते देख विन्ध्यगिरि ने उनसे कहा- ‘भास्कर! जैसे आप मेरु की प्रतिदिन परिक्रमा करते हैं, उसी तरह मेरी भी कीजिये।' यह सुनकर भगवान सूर्य ने गिरिराज विन्ध्य से कहा– ‘गिरिश्रेष्ठ! मैं अपनी इच्छा से मेरुगिरि की परिक्रमा नहीं करता हूँ। जिन्होंने इस संसार की सृष्टि की है, उन विधाता ने मेरे लिये सही मार्ग निश्चित किया है’। परंतप युधिष्ठिर! सूर्यदेव के ऐसा कहने पर विन्ध्य पर्वत सहसा कुपित हो सूर्य और चन्द्रमा का मार्ग रोक लेने की इच्छा से बढ़ने लगा। यह देख सब देवता एक साथ मिलकर महान् पर्वतराज विन्ध्य के पास गये और अनेक उपायों द्वारा उसके क्रोध का निवारण करने लगे, परंतु उसने उनकी बात नहीं मानी। तब वे सब देवता मिलकर अपने आश्रम पर विराजमान धर्मात्माओं मे श्रेष्ठ तपस्वी अगस्त्य मुनि के पास गये, जो अदभुत प्रभावशाली थे। वहाँ जाकर उन्होंने अपना प्रयोजन कह सुनाया। देवता बोले– 'द्विजश्रेष्ठ! यह पर्वतराज विन्ध्य क्रोध के वशीभूत होकर सूर्य और चन्द्रमा के मार्ग तथा नक्षत्रों की गति को रोक रहा है। महाभाग! आपके सिवा दूसरा कोई इसका निवारण नहीं कर सकता। अत: आप चलकर इसे रोकिये।' देवताओं की यह बात सुनकर विप्रवर अगस्त्य अपनी पत्नी लोपामुद्रा के साथ विन्ध्य पर्वत के समीप गये और वहाँ उपस्थित हो उससे इस प्रकार बोले- ‘पर्वतश्रेष्ठ! मैं किसी कार्य से दक्षिण दिशा को जा रहा हूँ, मेरी इच्छा है, तुम मुझे मार्ग प्रदान करो। जब तक मैं पुन: लौटकर न आऊँ, तब तक मेरी प्रतीक्षा करते रहो। शैलराज! मेरे लौट आने पर तुम पुन: इच्छानुसार बढ़ते रहना’। शत्रुसूदन! विन्ध्य के साथ ऐसा नियम करके मित्रावरुणनन्दन अगस्त्य जी चले गये और आज तक दक्षिण प्रदेश से नहीं लौटे। राजन्! तुम मुझसे जो बात पूछ रहे थे, वह सब प्रसंग मैने कह दिया। महर्षि अगस्त्य के ही प्रभाव से विन्ध्य पर्वत बढ़ नहीं रहा है। राजन्! सब देवताओं ने अगस्त्य से वर पाकर जिस प्रकार कालकेय नामक दैत्यों का संहार किया, वह बता रहा हूँ, सुनो। देवताओं की बात सुनकार मित्रावरुणनन्दन अगस्त्य ने पूछा- ‘देवताओ! आप लोग किसलिये यहाँ पधारे हैं और मुझसे कौन-सा वर चाहते हैं?' उनके इस प्रकार पूछने पर इन्द्र को आगे करके सब देवताओं ने हाथ जोड़कर मुनि से कहा- ‘महात्मन्! हम आपके द्वारा यह कार्य सम्पन्न कराना चाहते हैं कि आप सारे महासागर के जल को पी जायें। तदनन्दतर हम लोग देवद्रोही कालकेय नामक दानवों का उनके बन्धु-बान्धवों सहित वध कर डालेंगे।' देवताओं का यह कथन सुनकर महर्षि अगस्त्य ने कहा– ‘बहुत अच्छा’, मैं आप लोगों का मनोरथ पूर्ण करूँगा। इससे सम्पूर्ण लोकों को महान् सुख प्राप्त होगा‘। सुव्रत! ऐसा कहकर अगस्त्य जी देवताओं तथा तप:सिद्ध ऋषियों के साथ नदीपति समुद्र के तट पर गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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