महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 73-78

द्विचत्वारिंश (42) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: द्विचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 73-78 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 18

अर्जुन बोले- हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशय रहित होकर स्थित हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूंगा।[1] सम्बन्ध- इस प्रकार धृतराष्ट्र के प्रश्नानुसार भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवादरूप गीताशास्त्र का वर्णन करके अब उसका उपसंहार करते हुए संजय धृतराष्ट्र के सामने गीता का महत्त्व प्रकट करते हैं- संजय बोले- इस प्रकार मैंने श्रीवासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अद्भुत रहस्ययुक्त, रोमांचकारक संवाद को सुना।[2] श्रीव्यास जी की कृपा से[3] दिव्य दृष्टि पाकर मैंने इस परम गोपनीय योग को[4] अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना है। हे राजन! भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त, कल्याणकारक और अद्भुत संवाद को पुनः-पुनः स्मरण करके में बार-बार हर्षित होता हूँ। हे राजन! श्रीहरि उस अत्यन्त विलक्षण रूप को भी पुनः-पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।[5]

सम्बन्ध- इस प्रकार अपनी स्थिति वर्णन करते हुए गीता के उपदेश की और भगवान के अद्भुत रूप की स्मृति का महत्त्व प्रकट करके, अब संजय धृतराष्ट्र से पाण्डवों की विजय की निश्चित सम्भावना प्रकट करते हुए इस अध्याय का उपसंहार करते हैं- हे राजन! जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है।[6]


इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के श्रीमद्भगवद्गीतापर्व के अंतगर्त ब्रह्माविद्या एवं योगशास्त्ररूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्, श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मोक्ष संन्यास योग नाम अठारहवां अध्याय पूरा हुआ ।।18।। भीष्मपर्व में बयालीसवां अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अर्जुन के कहने का अभिप्राय यह है कि आपने यह दिव्य उपदेश सुनाकर मुझ पर बड़ी भारी दया की है, आपके उपदेश को सुनने से मेरा अज्ञानजनित मोह सर्वथा नष्ट हो गया है, अर्थात आपके गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और स्वरूप को यथार्थ न जानने के कारण जिस मोह से व्याप्त होकर मैं आपकी आज्ञा को मानने के लिये तैयार नहीं होता था (गीता 2:9) और बन्धु-बान्धवों के विनाश का भय करके शोक से व्याकुल हो रहा था (गीता 1:28 से 47 तक)- वह सब मोह अब सर्वथा नष्ट हो गया है तथा मुझे आपके गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और स्वरूप की पूर्ण स्मृति प्राप्त हो गयी है और आपका समग्र रूप मेरे प्रत्यक्ष हो गया है- मुझे कुछ भी अज्ञात नहीं रहा है। अब आपके गुण, प्रभाव ऐश्वर्य और सगुण-निर्गुण साकार-निराकार स्वरूप के विषय में तथा धर्म-अधर्म और कर्तव्य-अकर्तव्य आदि के विषय में मुझे किंचिन्मात्र भी संशय नहीं रहा है। आपकी दया से मैं कृतकृत्य हो गया हूँ, मेरे लिये अब कुछ भी कर्तव्य शेष नहीं रहा; अतएव आपके कथनानुसार लोकसंग्रह के लिये युद्धादि समस्त कर्म जैसे आप करवायेंगे, निमित्तमात्र बनकर लीलारूप से में वैसे ही करूंगा।
  2. संजय के कथन का यह भाव है कि साक्षात नर ऋषि के अवतार महात्मा अर्जुन के पूछने पर सबके हृदय में निवास करने वाले सर्वव्यापी परमेश्वर श्रीकृष्ण के द्वारा यह उपदेश दिया गया है, इस कारण यह बड़े ही महत्त्व का है, तथा यह उपेदश बड़ा ही आश्चर्यजनक और साधारण है; इससे मनुष्य को भगवान के दिव्य अलौकिक गुण, प्रभाव और ऐश्वर्ययुक्त समग्ररूप का पूर्ण ज्ञान हो जाता है तथा मनुष्य इसे जैसे-जैसे सुनता और समझता है, वैसे-ही-वैसे हर्ष और आश्चर्य के कारण उसका शरीर पुलकित हो जाता है, उसके समस्त शरीर में रोमांच हो जाता है।
  3. भगवान की प्राप्ति उपायभूत कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग और भक्तियोग आदि साधनों का इसमें भलीभाँति वर्णन किया गया है तथा वह स्वयं ही अर्थात श्रद्धापूर्वक इसका पाठ भी परमात्मा की प्राप्ति साधन होने से योगरूप है।
  4. संजय के कथन का यह भाव है कि भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन दिव्य संवादरूप वह गीताशास्त्र अध्ययन, अध्यापन, श्रवण, मनन और वर्णन आदि करने वाला मनुष्य को परमपवित्र करके उसका सब प्रकार से कल्याण करने वाला दिव्य और अलौकिक है। इस उपदेश ने मेरे हृदय को इतना आकर्षित कर दिया है कि अब मुझे दूसरी कोई बात ही अच्छी नहीं लगती; मेरे मन में बार बार इस उपदेश की स्मृति हो रही है और उन भावों के आवेश में मैं असीम हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ, प्रेम और हर्ष के कारण विह्वल हो रहा हूँ।
  5. जिस अत्यन्त आश्चर्यमय दिव्य विश्वरूप का भगवान ने अर्जुन को दर्शन कराया था और जिसके दर्शन का महत्त्व भगवान ने ग्यारहवें अध्याय के सैतालीसवें और अड़तालीसवें श्लोकों मे स्वयं बतलाया है, उसी विराट स्वरूप को लक्ष्य करके संजय यह कह रहे हैं कि भगवान का वह रूप मेरे चित्त से उतरना ही नहीं, उसे मैं बार-बार स्मरण करता रहता हूँ और मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि भगवान के अतिशय दुर्लभ उस दिव्य रूप का दर्शन मुझे कैसे हो गया! मेरा तो ऐसा कुछ भी पुण्य नहीं था, जिससे मुझे ऐसे रूप का दर्शन हो सकते। अहो! इसमें केवलमात्र भगवान की अहैतु की दया ही कारण है। साथ ही उस रूप के अत्यंत अद्भुत दृश्‍यों को और घटनाओं को याद कर-करके भी मुझे बड़ा आश्चर्य होता है तथा उसे बार-बार याद करके मैं हर्ष और प्रेम में विह्वल भी हो रहा हूं; मेरे आनंद का पारावार नहीं है।
  6. यहाँ संजय के कहने का अभिप्राय यह है कि भगवान श्रीकृष्ण समस्त योगशक्तियों के स्वामी हैं; वे अपनी योग शक्ति से क्षणभर में समस्त जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार कर सकते हैं; वे साक्षात नारायण भगवान श्रीकृष्ण जिस धर्मराज युधिष्ठिर के सहायक हैं, उसकी विजय में क्या शंका है। इसके सिवा अर्जुन भी नर ऋषि के अवतार, भगवान के प्रिय सखा और गाण्डीव-धनुष के धारण करने वाले महान वीर पुरुष हैं; वे भी अपने भाई युधिष्ठिर की विजय के लिये कटिबद्ध हैं। अतः आज उस युधिष्ठिर की बराबरी दूसरा कौन कर सकता है; क्‍योंकि जहाँ सूर्य रहता है, प्रकाश उसके साथ ही रहता है- उसी प्रकार यहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन रहते हैंं, वही सम्पूर्ण शोभा, सारा ऐश्वर्य और अटल न्याय (धर्म)- ये सब उनके साथ-साथ रहते हैंं और जिस पक्ष में धर्म रहता है, उसी की विजय होती है। अतः पाण्डवों की विजय में किसी प्रकार की शंका नहीं है। यदि अब भी तुम अपना कल्याण चाहते हो तो अपने पुत्रों को समझाकर पाण्डवों से संधि कर लो।

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