महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 31 श्लोक 6-13

त्रिश (30) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 6-13 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 7

हे अर्जुन! तू ऐसा साझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं[1] और मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हुं अर्थात सम्पूर्ण जगत् का मूल कारण हूँ।[2] हे धनंजय! मुझसे मित्र दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र के मुनियों के सहष मुझमें गुंथा हुआ है।[3] हे अर्जुन! मैं जल में रस हूं, चन्द्रमा और सूर्य मे प्रकाश हूं, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूं, आकाश में शब्द और पुरुष में पुरुषत्व हूँ। मैं पृथ्वी में पवित्र[4] गंध और अग्नि में तेज हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ और तपस्वियों में तप हूँ। हे अर्जुन! तू सम्पूर्ण भूतों को सनातन बीज मुझको ही जान।[5] मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तपस्वियों का तेज हूँ।[6]

हे भरतश्रेष्ठ! मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल अर्थात सामर्थ्य हूँ और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र के अलुकूल काम हूँ।[7]

सम्बन्ध-इस प्रकार प्रधान-प्रधान वस्तुओं में साररूप से अपनी व्यापकता बतलाते हुए भगवान् ने प्रकारान्तर से समस्त जगत् में अपनी सर्वव्यापकता और सर्वस्वरूपता सिद्ध कर दी, अब अपने-को ही त्रिगुणमय जगत का मूल कारण बतलाकर इस प्रसंग का उपंसहार करते हैं- और भी जो सत्त्वगुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं और जो रजोगुण से तथा तमोगुण से होने वाले भाव हैं, उन सबको तू 'मुझसे ही होने वाले हैं'[8] ऐसा जान। परन्तु वास्तव में उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं।[9]

सम्बन्ध- भगवान् ने यह दिखलाया कि समस्त जगत् मेरा ही स्वरूप् है और मुझसे ही व्याप्त है। यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि इस प्रकार सर्वत्र परिपूर्ण और अत्यन्त समीप होने पर भी लोग भगवान को क्यों नहीं पहचानते; इस पर भगवान कहते हैं- गुणों के कार्यरूप सात्त्विक, राजस और तामस-इन तीनों प्रकार के भावों से यह सब संसार- प्राणिसमुदाय मोहित हो रहा है।, इसीलिये इन तीनों गुणों से परे मुझ अविनाशी को नहीं जानता[10]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अचर और चर जितने भी छोटे-बड़े सजीव प्राणी हैं, उन सभी सजीव प्रणियों की उत्पत्ति, स्थिति और वृद्धि इन अपरा जड़ और परा चेतन प्रकृतियों के संयोग से ही होती है। इसलिये उनकी उत्पत्ति के ये ही दोनों कारण है। यही बात गीता के तेरहवें अध्याय छब्बीसवें श्लोक में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के नाम से कही गयी है।
  2. जैसे बादल आकाश से उत्पन्न होते हैं। आकाश में रहते हैं और आकाश में ही विलीन हो जाते हैं तथा आकाश ही उनका एकमात्र कारण और आधार है, वैसे ही यह सारा विश्व भगवान से ही उत्पन्न होता है।, भगवान में ही स्थित है और भगवान् में ही विलीन हो जाता है। भगवान् ही इसके एकमात्र महान कारण और परम आधार हैं।
  3. जैसे सूत की डोरी में उसी सूत की गाठें लगाकर उन्हें मनिये मानकर माला बना लेतें हैं। और जैसे उस डोरी में और गांठों के मनियों में सर्वत्र केवल सूत ही व्याप्त रहता है, उसी प्रकार यह समस्त संसार भगवान् में गुन्था हुआ है। भगवान् ही सब में ओतप्रोत हैं।
  4. शब्द, स्पर्ष रूप, रस एवं गन्ध से इस प्रसंग में इनके कारण रूप तन्मात्राओं को ग्रहण है। इस बात को स्पष्ट करने के लिये उनके साथ पवित्र शब्द जोड़ा गया है।
  5. जो सदा से हो तथा कभी नष्ट न हो, उसे सनातन कहते हैं। भगवान् ही समस्त चराचर भूत-प्राणियों के परम आधार हैं। और उन्हीं से सबकी उत्पप्ति होती है। अतएव वे ही सबके सनातन बीज हैं।
  6. सम्पूर्ण पदार्थों का निश्चय करने वाली और मन-इन्द्रियों को अपने शासन में रखकर उनका संचालन करने वाली अन्तःकरण की जो परिशुद्ध बोधमयी शक्ति है।, उसे बुद्धि कहते है; जिसमें वह बुद्धि अधिक होती है।, उसे बुद्धिमान कहते हैं; यह बुद्धिशक्ति भगवान् की अपरा प्रकृति का ही अंध है। इसी प्रकार सब लोगों पर प्रभाव डालने वाली शक्ति विशेष का नाम तेजस् है; यह तेजस्तत्त्व जिसमें विशेष होता है। उसे लोग तेजस्वी कहते हैं। यह तेज भी भगवान् की अपरा प्रकृति का ही एक अंश है, इसलिये भगवान् ने इन दोनों को अपना स्वरूप बतलाया है।
  7. जिस बल में कामना, राग, अंहकार तथा क्रोधादि का संयोग है, उस बल का वर्णन आसुरी सम्पदा में किया गया है। (गीता 16।18), अतः वह तो आसुर बल है और उसके त्यागने की बात कही है (गीता 18।53)। इसी प्रकार धर्म-विरुद्ध काम भी आसुरी सम्पदा का प्रधान गुण होने से समस्त अनर्थों का मूल (गीता 3।37), नरक का द्वार और त्याज्य है (गीता 16।21)। काम-रागयुक्त बल से और धर्मविरुद्ध काम से विलक्षण, विरुद्ध, बल और विशुद्ध काम ही भगवान् का स्वरूप है।
  8. मन, बुद्धि, अंहकार, इनिद्रय, इन्द्रियों के विषय, तन्मात्राएँ, महाभूत और समस्त गुण-अवगुण तथा कर्म आदि जितने भी भाव हैं, सभी सात्त्विक, राजस और तामस भावों के अन्तर्गत हैं। इन समस्त पदार्थों का विकास और विस्तार भगवान् की अपरा प्रकृति से होता है और वह प्रकृति भगवान् की है, अतः भगवान् से भिन्न नहीं है, उन्हीं के लीला-संकेत से प्रकृति द्वारा सबका सृजन, विस्तार और उपसंहार होता रहता है- इस प्रकार जान लेना ही उन सबको भगवान् से होने वाले समझना है।
  9. जैसे आकाश में उत्पन्न होने वाले बादलों का कारण और आधार आकाश है, परंतु आकाश उनसे सर्वथा निर्लिप्त है। बादल आकाश में सदा नहीं रहते और अनित्य होने से वस्तुतः उनकी स्थिर सत्ता भी नहीं है; पर आकाश बादलों के न रहने पर भी सदा रहता है। जहाँ बादल नहीं है, वहाँ भी आकाश तो है ही; वह बादलों के अश्रित नहीं है। वस्तुतः बादल भी आकाश से भिन्न नहीं है, उसी में उससे उत्पन्न होते हैं। अतएव यथार्थ में बादलों की भिन्न सत्ता न होने से आकाश किसी समय भी बादलों में नहीं है। वह तो सदा अपने आप में ही स्थित है। इसी प्रकार यद्यपि भगवान् भी समस्त त्रिगुणमय भावों के कारण और आधार है, तथापि वास्तव में वे गुण भगवान् में नहीं है और भगवान् उनमें नहीं है। भगवान् तो सर्वथा और सर्वदा गुणातीत हैं तथा नित्य अपने-आप में ही स्थित हैं।
  10. जगत के समस्त देहाभिमानी प्राणी-यहाँ तक कि मनुष्य भी अपने-अपने स्वभाव, प्रकृति और विचार के अनुसार, अनित्य और दुःखपूर्ण इन त्रिगुणमय भावों की नित्य और सुख के हेतु समझकर इनकी कल्पित रमणीयमा और सुख-रूपता की केवल ऊपर से ही दीखने वाली चमर-दमर में जीवन के परम कारण उनकी विवेकदृष्टि इतनी स्थूल हो गयी है कि वे विषयों के संग्रह करने और भोगने के सिवा जीवन का अन्य कोई कर्तव्य या लक्ष्य ही नहीं समझते। इसलिये वे इन सबसे सर्वथा अतीत, अविनाशी परमात्मा को नहीं जान सकते।

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