महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 30 श्लोक 44-47

त्रिश (30) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: त्रिश अध्याय: श्लोक 44-47 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 6


वह श्रीमान के घर में जन्‍म लेने वाला योगभ्रष्‍ट पराधीन हुआ भी उस पहले के अभ्‍यास से ही निस्‍संहेद भगवान् की ओर आकर्षित किया जाता है तथा समबुद्धिरूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकामकर्मों के फल को उल्‍लंघन कर जाता है।[1] परंतु प्रयत्‍नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी[2] तो पिछले अनेक जन्‍मों के संस्‍कार बल से इसी जन्‍म में संसिद्ध होकर[3] सम्‍पूर्ण पापों से रहित हो फिर तत्‍काल ही परमगति को प्राप्‍त हो जाता है। योगी तपस्वियों से श्रेष्‍ठ है, शास्‍त्रज्ञानियों से भी श्रेष्‍ठ माना गया है और सकामकर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्‍ठ है,[4] इससे हे अर्जुन! तू योगी हो।

संबंध- पूर्वश्लोक में योगी को सर्वश्रेष्‍ठ बतलाकर भगवान् ने अर्जुन को योगी बनने के लिये कहा; किंतु ज्ञानयोग, ध्‍यानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग आदि साधनों में से अर्जुन को कौन-सा साधन करना चाहिेय? इस बात का स्‍पष्‍टीकरण नहीं किया। अत: अब भगवान् अपने में अनन्‍यप्रेम करने वाले भक्‍त योगी की प्रशंसा करते हुए अर्जुन को अपनी ओर आकर्षित करते हैं- सम्‍पूर्ण[5] योगियों में भी जो श्रद्धावान[6] योगी मुझमें लगे हुए अंतरात्‍मा[7] से मुझको निरंतर भजता[8] है, वह योगी मुझे परम[9] श्रेष्‍ठ मान्‍य है।[10]


इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍म पर्व के श्रीमद्गगवतद्गीतापर्व के अंतर्गत ब्रह्मविद्या एंव योगशास्‍त्ररूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्, श्रीकृष्‍णाअर्जुनसंवाद में आत्‍मसंयमयोग नामक छठा अध्‍याय पूरा हुआ ॥6॥ भीष्‍मपर्व में तीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जो योग का जिज्ञासु है, योग में श्रद्धा रखता है और उसे प्राप्‍त करने की चेष्‍टा करता है, वह मनुष्‍य भी वेदोक्‍त सकामकर्म के फलस्‍वरूप इस लोक और परलोक के भोगजनित सुख को पार कर जाता है तो फिर जन्‍म-जन्‍मांतर से योग का अभ्‍यास करने वाले योगभ्रष्‍ट पुरुषों के विषय में तो कहना ही क्‍या है?
  2. तैंतालीसवें श्‍लोक में यह बात कही गयी है कि योगियों के कुल में जन्‍म लेने वाला योग भ्रष्‍ट पुरुष उस जन्‍म में योगसिद्धि की प्राप्ति के लिय अधिक प्रयत्‍न करता है। इस श्‍लोक में उसी योगी को परमगति की प्राप्ति बतलायी जाती है, इसी बात को स्‍पष्‍ट करने के लिये यहाँ 'योगी' को 'प्रयत्‍नपूर्वक अभ्‍यास करने वाला' बतलाया गया है; क्‍योंकि उसके प्रयत्‍न का फल वहाँ उस श्‍लोक में नहीं बतलाया गया था, उसे यहाँ बतलाया गया है।
  3. पिछले अनेक जन्‍मों में किया हुआ अभ्‍यास और इस जन्‍म का अभ्‍यास दोनों ही उसे योगसिद्धि की प्राप्ति कराने में अर्थात् साधन की पराकाष्‍ठा तक पहुँचाने में हेतु हैं, क्‍योंकि पूर्व संस्‍कार के बल से ही वह विशेष प्रयत्‍न के साथ इस जन्‍म में साधन का अभ्‍यास करके साधन की पराकाष्‍ठा का प्राप्‍त करता है।
  4. सकामभाव से यज्ञ-दानादि शास्‍त्रविहित क्रिया करने वाले का नाम ही ‘कर्मी’ है। इसमें क्रिया की बहुलता है। तपस्‍वी में क्रिया की प्रधानता नहीं, मन और इन्द्रिय के संयम की प्रधानता है और शास्‍त्रज्ञानी में शास्‍त्रीय बौद्धिक आलोचना की प्रधानता है। इसी विलक्षणता को ध्‍यान में रखकर कर्मी, तपस्‍वी और शास्‍त्रज्ञानी का अलग-अलग निर्देश किया गया है।
  5. गीता के चौथे अध्‍याय में चौबीसवें से तीसवें श्लोक तक भगवत्‍प्राप्ति के जितने भी साधन यज्ञ के नाम से बतलाये गये हैं, उनके अतिरिक्‍त और भी भगवत्‍प्राप्ति के जिन-जिन साधनों का अब तक वर्णन किया गया है, उन सभी प्रकार के योगियों का लक्ष्‍य कराने के लिये यहाँ ‘योगिनाम्’ पद के साथ ‘अपि’ पद का प्रयोग करके ‘सर्वेषाम्’ विशेषण दिया गया है।
  6. जो भगवान् की सत्ता में, उनके अवतारों में, उनके वचनों में, उनके अचिन्‍त्‍यानंत दिव्‍य गुणों में तथा नाम और लीला में एवं उन की महिमा, शक्ति, प्रभाव और ऐश्वर्य आदि में प्रत्‍यक्ष के सदृश पूर्ण और अटल विश्वास रखता हो, उसे ‘श्रद्धावान्’ कहते हैं।
  7. इससे भगवान् यह दिखलाते हैं कि मुझको सर्वश्रेष्‍ठ, सर्वगुणाधार, सर्वशक्तिमान् और महान् प्रियतम जान लेने से जिसका मुझ में अनन्‍य प्रेम हो गया है ओर इसलिये जिसका मन-बुद्धिरूप अंत:करण अचल, अटल और अनन्‍यभाव से मुझमें ही स्थित हो गया है, उसके अंत:करण को ‘मद्गत अंतरात्‍मा’ या मुझमें लगा हुआ अंतरात्मा कहते हैं।
  8. सब प्रकार और सब ओर से अपने मन-बुद्धि को भगवान् में लगाकर परम श्रद्धा और प्रेम के साथ चलते-फिरते उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते, प्रत्‍येक क्रिया करते अथवा एकांत में स्थित रहते, निरंतर श्रीभगवान् का भजन-ध्‍यान करना ही ‘भजते’ का अर्थ है।
  9. यहाँ ‘माम्’ पद निरतिशय ज्ञान, शक्ति, ऐश्वर्य, वीर्य और तेज आदि के परम आश्रय, सौन्‍दर्य, माधुर्य और औदार्य के अनंत समुद्र, परम दयालु, परम सुहृद्, परम प्रेमी, दिव्‍य अचिन्‍त्‍यानंदस्‍वरूप, नित्‍य, सत्‍य, अज और अविनाशी, सर्वान्‍तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, सर्वदिव्‍यगुणालङ्कृत, सर्वात्‍मा, अचिन्‍त्‍य महत्त्‍व से महिमान्वित, चित्र-विचित्र लीलाकारी, लीलामात्र से प्रकृति द्वारा सम्‍पूर्ण जगत् की उत्‍पत्ति, स्थिति और संहार करने वाले तथा रससागर, रसमय, आनंदकंद, सगुणनिर्गुणरूप समग्र ब्रह्म पुरुषोत्तम का वाचक है।
  10. श्रीभगवान् यहाँ पर अपने प्रेमी भक्‍तों की महिमा का वर्णन करते हुए मानो कहते हैं कि यद्यपि मुझे तपस्‍वी, ज्ञानी और कर्मी आदि सभी प्‍यारे हैं और इन सबसे भी वे योगी मुझे अधिक प्‍यारे हैं, जो मेरी ही प्राप्ति के लिये साधन करते हैं, परंतु जो मेरे समग्ररूप को जानकर मुझसे अनन्‍यप्रेम करता है, केवल मुझको ही अपना परम प्रेमास्‍पद मानकर, किसी बात की अपेक्षा, आकांक्षा और परवा न रखकर अपने अंतरात्‍मा को दिन-रात मुझमें ही लगाये रखता है, वह मेरा अपना है, मेरा ही है, उससे बढ़कर मेरा प्रियतम और कौन है? जो मेरा प्रिमतम है, वही तो श्रेष्‍ठ है; इसलिये मेरे मन में वही सर्वोत्तम भक्‍त है और वही सर्वोत्तम योगी है।

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