द्वयधिकशततम (102) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
महाभारत: द्रोण पर्व: द्वयधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-38 का हिन्दी अनुवाद
संजय कहते है-राजन! तत्र कुन्तीकुमार अर्जुन ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर भगवान श्रीकृष्ण से कहा –‘यह मेरे लिये सबसे महान कर्त्तव्य प्राप्त हुआ है। अन्य सब कार्यों की अवहेलना करके आप वहीं चलिये, जहाँ दुर्योधन खड़ा है। ‘जिसने दीर्घकाल तक हमारे इस अकंटक राज्य का उपभोग किया है, मैं युद्ध में पराक्रम करके उस दुर्योधन का मस्तक काट डालूंगा। ‘माधव! जो क्लेश भोगने के योग्य नहीं है, उसी द्रौपदी का केश पकड़कर जो उसे अपमानित किया गया है, उसका बदला इस दुर्योधन को मारकर ही चुका सकता हूँ। ‘श्रीकृष्ण! समरागंण में दुर्योधन का वध करके मैं किसी प्रकार उन सभी दु:खों से छुटकारा पा जाउंगा, जो पूर्वकाल में भोगने पड़े है’। इस प्रकार की बातें करते हुए उन दोनों कृष्णों ने युद्ध स्थल में राजा दुर्योधन को अपना लक्ष्य बनाने के लिए हर्ष पूर्वक अपने उत्तम सफेद घोड़ों को उसकी ओर बढ़ाया। आर्य! भरतभूषण! आपके पुत्र ने उन दोनों के समीप पहुँचकर महान भय का अवसर प्राप्त होने पर भी भय नहीं माना। अपने सामने आये हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन को दुर्योधन ने जो रोक दिया, उसके इस कार्य की वहाँ सभी क्षत्रियों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। राजन! युद्धस्थल में राजा दुर्योधन को उपस्थित देख आपकी सारी कौरव सेना में महान सिंहनाद होने लगा। जिस समय वह भयंकर जन कोलाहल हो रहा था, उसी समय आपके पुत्र ने अपने शत्रु अर्जुन को कुछ भी न समझकर आगे बढ़ने से रोक दिया। आपके धनुर्धर पुत्र दुर्योधन द्वारा रोके जाने पर शत्रुओं को संताप देने वाले कुन्तीकुमार अर्जुन पुन: उसके उपर अत्यन्त कुपित हो उठे। दुर्योधन तथा अर्जुन को परस्पर कुपित देख भयंकर नरेश गण सब ओर खड़े हो चुपचाप देखने लगे। आर्य! अर्जुन और श्रीकृष्ण को अत्यन्त रोष में भरे देख आपके पुत्र जोर-जोर से हंसते हुए ही युद्ध की इच्छा से उन दोनों को ललकारा। तब हर्ष में भरे हुए श्रीकृष्ण और पाण्डुनन्दन अर्जुन ने बड़े जोर से सिंहनाद किया और अपने उत्तम शंखों को बजाया। उन दोनों को हर्षोल्लास से परिपूर्ण देख सम्पूर्ण कौरव-सैनिक आपके पुत्र के जीवन से निराश हो गये। अन्य सब कौरव भी शोकमग्न हो गये और आपके पुत्र आग के मुख में होम दिया गया– ऐसा मानने लगे। श्रीकृष्ण और अर्जुन को इस प्रकार हर्षमग्न देख आप के समस्त सैनिक भय से पीड़ित हो ऐसा कहते हुए कोलाहल करने लगे कि ‘हाय! राजा दुर्योधन मारे गये, मारे गये’। लोगों का वह आर्तनाद सुनकर दुर्योधन बोला-‘तुम लोगों का भय दूर हो जाना चाहिये। मैं इन दोनों कृष्णों को मृत्यु के घर भेज दूंगा। अपने सम्पूर्ण सैनिकों से ऐसा कहकर विजय की अभिलाषा रखने वाले राजा दुर्योधन ने कुन्तीकुमार को सम्बोधित करके क्रोधपूर्वक इस प्रकार कहा-। ‘पार्थ! यदि तुम पाण्डु के बेटे हो तो तुमने जो लौकिक एवं दिव्य अस्त्रों की शिक्षा प्राप्त की है, उन सबको मेरे ऊपर शीघ्र दिखाओ। ‘तुममें और श्रीकष्ण में जो बल और पराक्रम हो, उसे मेरे ऊपर शीघ्र प्रकट करो। हम देखते हैं कि तुम में कितना पुरुषार्थ है। ‘हमारे परोक्ष में लोग स्वामी के सत्कार से युक्त तुम्हारे किये हुए जिन कर्मों का वर्णन करते हैं, उन्हें यहाँ दिखाओ’। इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्तगर्त जयद्रथवपर्व में दुर्योधन वचन विषयक एक सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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