षोडश (16) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 19-38 का हिन्दी अनुवाद
सिद्ध ने कहा- तात कश्यप! मनुष्य नाना प्रकार के शुभ कर्मों का अनुष्ठान करके केवल पुष्य के संयोग से इस लोक में उत्तम फल और देवलोक में स्थान प्राप्त करते हैं। जीवन को कहीं भी अत्यन्त सुख नहीं मिलता। किसी भी लोक में वह सदा नहीं रहने पाता। तपस्या आदि के द्वारा कितने ही कष्ट सहकर बड़े-से-बड़े स्थान को क्यों न प्राप्त किया जाय, वहाँ से भी बार-बार नीचे आना ही पड़ता है। मैंने काम-क्रोध से युक्त और तृष्णा से मोहित होकर अनेक बार पाप किये हैं और उनके सेवन के फलस्वरूप घोर कष्ट देने वाली अशुभ गतियों का भोग है। बार-बार जन्म और बार-बार मृत्यु का क्लेश उठाया है। तरह-तरह के आहार ग्रहण किये और अनेक स्तनों का दूध पीया है। अनध! बहुत-से पिता और भाँति-भाँति की माताएँ देखी है। विचित्र-विचित्र सुख-दु:खों का अनुभव किया है। कितनी ही बार मुझसे प्रियाजनों का वियोग और अप्रिय जनों का संयोग हुआ है। जिस धन को मैने बहुत कष्ट सहकर कमाया था, वह मेरे देखते-देखते नष्ट हो गया है। राजा और स्वजनों की ओर से मुझे कई बार बड़े-बड़े कष्ट और अपमान उठाने पड़े है। तन और मन की अत्यंत भंयकर वेदनाएँ सहनी पड़ी है। मैंने अनेक बार घोर अपमान, प्राणदण्ड और कड़ी कैद की सजाएँ भोगी है। मुझे नरक में गिरना और यमलोक में मिलने वाली यातानाओं को सहना पड़ा है। इस लोक में जन्म लेकर मैने बारंबार बुढ़ापा, रोग, व्यसन और राग-द्वेषादि द्वन्दों की प्रचुर दु:ख सदा ही भोगे हैं। इस प्रकार बारंबार क्लेश उठाने से एक दिन मेरे मन में बड़ा खेद हुआ और मैं दुखों से घबराकर निराकर परमात्मा की शरण ली तथा समस्त लोकव्यवहार का परित्याग कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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