अष्टाशीतितम (88) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: अष्टाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
इन्द्र ने कहा- राजन्! तुम सम्पूर्ण कर्मों को समाप्त करके घर छोड़कर वन में चले गये थे। अत: नहुषपुत्र ययाते! मैं तुमसे पूछता हूँ कि तुम तपस्या में किसके समान हो। ययाति ने कहा- इन्द्र मैं देवताओं, मनुष्यों, गन्धर्वों और महर्षियों में से किसी को भी तपस्या में अपनी बराबरी करने वाला नहीं देखता हूँ। इन्द्र बोले- राजन्! तुमने अपने समान, अपने से बड़े और छोटे लोगों का प्रभाव न जानकर सबका तिरस्कार किया है, अत: तुम्हारे इन पुण्यलोकों में रहने की अवधि समाप्त हो गयी; क्योंकि (दूसरों की निन्दा करने के कारण) तुम्हारा पुण्य क्षीण हो गया, इसलिये अब तुम यहाँ से नीचे गिरोगे। ययाति ने कहा- देवराज इन्द्र! देवता, ऋषि, गन्धर्व और मनुष्य आदि का अपमान करने के कारण यदि मेरे पुण्य लोक क्षीण हो गये हैं तो इन्द्र लोक से भ्रष्ट होकर मैं साधु पुरुषों के बीच में गिरने की इच्छा करता हूँ। इन्द्र बोले- राजा ययाति! तुम यहाँ से च्युत होकर साधु पुरुषों के समीप गिरोगे और वहाँ अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा पुन: प्राप्त कर लोगे। यह सब जानकर तुम फिर कभी अपने बराबर तथा अपने से बड़े लोगों का अपमान न करना। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर देवराज इन्द्र के सेवन करने योग्य पुण्य लोकों का परित्याग करके राजा ययाति नीचे गिरने लगे। उस समय राजर्षियों में श्रेष्ठ अष्टक ने उन्हें गिरते देखा। वे उत्तम धर्म-विधि के पालक थे। उन्होंने ययाति से कहा। अष्टक ने पूछा- इन्द्र के समान सुन्दर रुप वाले तरुण पुरुष तुम कौन हो? तुम अपने तेज से अग्नि की भाँति देदीप्यमान हो रहे हो। मेघरूपी घने अन्धकार वाले आकाश में आकाशचारी ग्रहों में श्रेष्ठ सूर्य के समान तुम कैसे गिर रहे हो? तुम्हारा तेज सूर्य और अग्नि के सदृश्य है। तुम अप्रमेय शक्तिशाली जान पड़ते हो। तुम्हें सूर्य के मार्ग से गिरते देख हम सब लोग मोहित होकर इस तर्क-वितर्क में पड़े हैं कि ‘यह क्या गिर रहा है?’ तुम इन्द्र, सूर्य और विष्णु के समान प्रभावशाली हो। तुम्हें आकाश में स्थित देखकर हम सब लोग अब यह जानने के लिये तुम्हारे निकट आये हैं कि तुम्हारे पतन का यथार्थ कारण क्या है? हम पहले तुमसे कुछ पूछने का साहस नहीं कर सकते और तुम भी हमसे हमारा परिचय नहीं पूछते हो; कि हम कौन हैं? इसलिये मैं ही तुमसे पूछता हूँ। मनोरम रुप वाले महापुरुष! तुम किसके पुत्र हो? और किसलिये यहाँ आये हो? इन्द्र के तुल्य शक्तिशाली पुरुष! तुम्हारा भय दूर हो जाना चाहिये। अब तुम्हें विषाद और मोह को भी तुरंत त्याग देना चाहिये। इस समय तुम संतों के समीप विद्यमान हो। बल दानव का नाश करने वाले इन्द्र भी अब तुम्हारा तेज सहन करने में असमर्थ हैं। देवेश्वर इन्द्र के समान तेजस्वी महानुभाव! सुख से वञ्चित होने वाले साधु पुरुषों के लिये सदा संत ही परमआश्रय हैं। वे स्थावर और जंगम सब प्राणियों पर शासन करने वाले सत्पुरुष यहाँ एकत्र हुए हैं। तुम अपने समान पुण्यात्मा संतों के बीच में स्थित हो। जैसे तपने की शक्ति अग्नि में है, बोये हुए बीज को धारण करने की शक्ति पृथ्वी में है, प्रकाशित होने की शक्ति सूर्य में है, इसी प्रकार संतों पर शासन करने की शक्ति केवल अतिथि में है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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