द्वादशाधिकशततम (212) अध्याय: आदि पर्व (अर्जुनवनवास पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: द्वादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद
इसके बाद अर्जुन ने धर्मराज से कहा- ‘प्रभो! मैंने आपको द्रौपदी के साथ देखकर पहले के निश्चित नियम को भंग किया है; अत: आप इसके लिये मुझे प्रायश्चित करने की आज्ञा दिजिये। मैं वनवास के लिये जाऊंगा; क्योंकि हम लोगों में वह शर्त हो चुकी है।’ अर्जुन के मुख से सहसा यह अप्रिय वचन सुनकर धर्मराज शोकातुर होकर लड़खड़ाती हुई वाणी में बोले- ‘ऐसा क्यों करते हो?’ इसके बाद राजा युधिष्ठिर धर्म मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले अपने भाई गुडाकेश धनंजय से फिर दान होकर बोले- ‘अनघ! यदि तुम मुझको प्रमाण मानते हो, तो मेरी यह बात सुनो- ‘वीरवर! तुमने घर के भीतर प्रवेश करके तो मेरा प्रिय कार्य किया है, अत: उसके लिये मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं; क्योंकि मेरे हृदय में यह अप्रिय नहीं है। यदि बड़ा भार्इ घर में स्त्री के साथ बैठा हो, तो छोटे भाई का वहाँ जाना दोष की बात नहीं है; परंतु छोटे भार्इ घर में हो, तो बड़े भाई का वहाँ जाना उसके धर्म का नाश करने वाला है। अत: महाबाहो! मेरी बात मानो; वनवास का विचार छोड़ दी। न तो तुम्हारे धर्म का लोप हुआ है और न तुम्हारे द्वारा मेरा तिरस्कार ही किया गया है।’ अर्जुन बोले- प्रभो! मैने आपके ही मुख से सुना है कि धर्माचरण मे कभी बहानेबाजी नहीं करनी चाहिये। अत: मैं सत्य की शपथ खाकर और शस्त्र छूकर कहता हूँ कि सत्य से विचलित नहीं होऊँगा। यशोवर्धन! मुझे आप वनवास के लिये आज्ञा दें, मेरा यह निश्चय है कि मैं आपकी आज्ञा के बिना कोई कार्य नहीं करुंगा। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजा की आज्ञा लेकर अर्जुन ने वनवास की दीक्षा ली और वन में बारह वर्षों तक रहने के लिये वहाँ से चल पड़े। इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत अर्जुन वनवास पर्व में अर्जुन तीर्थ यात्राविषयक दो सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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