छो (Text replacement - " मुसकान " to " मुस्कान ") |
|||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
<div class="bgmbdiv"> | <div class="bgmbdiv"> | ||
− | <h4 style="text-align:center">द्वाविंश (22) अध्याय: विराट पर्व | + | <h4 style="text-align:center">द्वाविंश (22) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)</h4> |
{| width=100% cellspacing="10" style="background:transparent; text-align:justify;" | {| width=100% cellspacing="10" style="background:transparent; text-align:justify;" | ||
|- | |- | ||
| style="vertical-align:bottom;"| | | style="vertical-align:bottom;"| | ||
− | [[चित्र:Prev.png|link=महाभारत विराट पर्व अध्याय 21 श्लोक 46-51 | + | [[चित्र:Prev.png|link=महाभारत विराट पर्व अध्याय 21 श्लोक 46-51]] |
| | | | ||
− | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: विराट पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद</ | + | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: विराट पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद<br /> |
− | |||
− | + | ;कीचक और भीमसेन का युद्ध तथा कीचक वध</div> | |
− | + | भीमसेन बोले- भद्रे! तू जैसा कह रही है, वैसा ही करूँगा। भीरु! मैं आज [[कीचक]] को उसके भाई-बन्धुओं सहित मार डालूँगा। पवित्र मुस्कान वाली [[द्रौपदी]]! तुम दुःख, शोक भुलाकर आगामी रात्रि के प्रदोष काल में कीचक से मिलो और उसे नृत्यशाला में आने के लिये कह दो। मत्स्यराज [[विराट]] ने जो यहाँ नृत्यशाला बनवायी है, उसमें दिन के समय तो कन्याएँ नाचती हैं तथा रात को अपने-अपने घर चली जाती हैं। उस नृत्यशाला में एक बहुत सुन्दर मजबूत पलंग बिछा हुआ है। वहीं आने पर उस कीचक को मैं उसके मरे हुए बाप-दादों का दर्शन कराऊँगा। तुम ऐसी चेष्टा करना, जिससे उसके साथ गुप्त वार्तालाप करते समय कोइ तुम्हें देख न ले। कल्याणी! तुम ऐसी बात करना, जिससे वहाँ दिये हुए संकेत के अनुसार वह अवश्य मेरे पास आ जाये। | |
− | + | वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! इस प्रकार बातचीत करके वे दोनों दु:खी दम्पति आँसू बहाकर अलग हुए तथा रात्रि के शेषभाग को उन्होंने बड़ी व्याकुलता से बिताया और आपस की बातचीत को मन में ही गुप्त रखा। वह रात बीत जाने पर कीचक सवेरे उठा और राजमहल में जाकर [[द्रौपदी]] से इस प्रकार बोला- ‘सैरन्ध्री! मैंने राजसभा में तुम्हारे महाराज के देखते-देखते तुम्हें पृथ्वी पर गिराकर तुम्हें लातों से मारा था। तुम मुझ जैसे महाबलवान पुरुष के पाले पड़ी हो; तुम्हें कोई बचा नहीं सकता। राजा [[विराट]] तो कहने के लिये ही मत्स्यदेश का नाममात्र का राजा है। वास्तव में मैं ही यहाँ का राजा हूँ; क्योंकि सेना का मालिक मैं हूँ। भीरु! सुखपूर्वक मुझे स्वीकार कर लो, फिर तो मैं तुम्हारा दास बन जाऊँगा। सुश्रोणि! मैं तुम्हारे दैनिक खर्च के लिये प्रतिदिन सौ मोहरें देता रहूँगा। तुम्हारी सेवा के लिये सौ दासियाँ और उतने ही दास दूँगा। तुम्हारी सवारी के लिये खच्चरियों से जुता हुआ रथ प्रस्तुत रहेगा। भीरु! अब हम दोनों का परस्पर समागम होना चाहिये। | |
− | + | [[द्रौपदी]] ने कहा- कीचक! यदि ऐसी बात है, तो आज मेरी एक शर्त स्वीकार करो। तुम मुझसे मिलने आते हो, यह बात तुम्हारा मित्र अथवा भाई कोई भी न जाने। क्योंकि मैं गन्धर्वों के अपवाद से डरती हूँ। यदि इस बात के लिये मुझसे प्रतिज्ञा करो, तो मैं तुम्हारे अधीन हो सकती हूँ। | |
− | + | [[कीचक]] बोला- ठीक है। सुश्रोणि! तुम जैसा कहती हो, वैसा ही करूँगा। भद्रे! तुम्हारे सूने घर में मैं अकेला ही आऊँगा। रम्भोरु! मैं काम से मोहित होकर तुम्हारे साथ समागम के लिये इस प्रकार आऊँगा, जिससे सूर्य के समान तेजस्वी गन्धर्व तुम्हें उस समय मेरे साथ न देख सकें। | |
+ | द्रौपदी ने कहा- कीचक! मत्स्यराज ने यह जो नृत्यशाला बनवायी है, उसमें दिन के समय कन्याएँ नृत्य करती हैं तथा रात में अपने-अपने घर चली जाती हैं। वहाँ अँधेरा रहता है, अतः मुझसे मिलने के लिये वहीं जाना। उस स्थान को गन्धर्व नहीं जानते। वहाँ मिलने से सब दोष दूर हो जायेगा; इसमें संशय नहीं है। | ||
| style="vertical-align:bottom;"| | | style="vertical-align:bottom;"| | ||
− | [[चित्र:Next.png|link=महाभारत विराट पर्व अध्याय 22 श्लोक 18-32 | + | [[चित्र:Next.png|link=महाभारत विराट पर्व अध्याय 22 श्लोक 18-32]] |
|} | |} | ||
</div> | </div> |
14:47, 31 मार्च 2018 के समय का अवतरण
द्वाविंश (22) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)
महाभारत: विराट पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
भीमसेन बोले- भद्रे! तू जैसा कह रही है, वैसा ही करूँगा। भीरु! मैं आज कीचक को उसके भाई-बन्धुओं सहित मार डालूँगा। पवित्र मुस्कान वाली द्रौपदी! तुम दुःख, शोक भुलाकर आगामी रात्रि के प्रदोष काल में कीचक से मिलो और उसे नृत्यशाला में आने के लिये कह दो। मत्स्यराज विराट ने जो यहाँ नृत्यशाला बनवायी है, उसमें दिन के समय तो कन्याएँ नाचती हैं तथा रात को अपने-अपने घर चली जाती हैं। उस नृत्यशाला में एक बहुत सुन्दर मजबूत पलंग बिछा हुआ है। वहीं आने पर उस कीचक को मैं उसके मरे हुए बाप-दादों का दर्शन कराऊँगा। तुम ऐसी चेष्टा करना, जिससे उसके साथ गुप्त वार्तालाप करते समय कोइ तुम्हें देख न ले। कल्याणी! तुम ऐसी बात करना, जिससे वहाँ दिये हुए संकेत के अनुसार वह अवश्य मेरे पास आ जाये। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! इस प्रकार बातचीत करके वे दोनों दु:खी दम्पति आँसू बहाकर अलग हुए तथा रात्रि के शेषभाग को उन्होंने बड़ी व्याकुलता से बिताया और आपस की बातचीत को मन में ही गुप्त रखा। वह रात बीत जाने पर कीचक सवेरे उठा और राजमहल में जाकर द्रौपदी से इस प्रकार बोला- ‘सैरन्ध्री! मैंने राजसभा में तुम्हारे महाराज के देखते-देखते तुम्हें पृथ्वी पर गिराकर तुम्हें लातों से मारा था। तुम मुझ जैसे महाबलवान पुरुष के पाले पड़ी हो; तुम्हें कोई बचा नहीं सकता। राजा विराट तो कहने के लिये ही मत्स्यदेश का नाममात्र का राजा है। वास्तव में मैं ही यहाँ का राजा हूँ; क्योंकि सेना का मालिक मैं हूँ। भीरु! सुखपूर्वक मुझे स्वीकार कर लो, फिर तो मैं तुम्हारा दास बन जाऊँगा। सुश्रोणि! मैं तुम्हारे दैनिक खर्च के लिये प्रतिदिन सौ मोहरें देता रहूँगा। तुम्हारी सेवा के लिये सौ दासियाँ और उतने ही दास दूँगा। तुम्हारी सवारी के लिये खच्चरियों से जुता हुआ रथ प्रस्तुत रहेगा। भीरु! अब हम दोनों का परस्पर समागम होना चाहिये। द्रौपदी ने कहा- कीचक! यदि ऐसी बात है, तो आज मेरी एक शर्त स्वीकार करो। तुम मुझसे मिलने आते हो, यह बात तुम्हारा मित्र अथवा भाई कोई भी न जाने। क्योंकि मैं गन्धर्वों के अपवाद से डरती हूँ। यदि इस बात के लिये मुझसे प्रतिज्ञा करो, तो मैं तुम्हारे अधीन हो सकती हूँ। कीचक बोला- ठीक है। सुश्रोणि! तुम जैसा कहती हो, वैसा ही करूँगा। भद्रे! तुम्हारे सूने घर में मैं अकेला ही आऊँगा। रम्भोरु! मैं काम से मोहित होकर तुम्हारे साथ समागम के लिये इस प्रकार आऊँगा, जिससे सूर्य के समान तेजस्वी गन्धर्व तुम्हें उस समय मेरे साथ न देख सकें। द्रौपदी ने कहा- कीचक! मत्स्यराज ने यह जो नृत्यशाला बनवायी है, उसमें दिन के समय कन्याएँ नृत्य करती हैं तथा रात में अपने-अपने घर चली जाती हैं। वहाँ अँधेरा रहता है, अतः मुझसे मिलने के लिये वहीं जाना। उस स्थान को गन्धर्व नहीं जानते। वहाँ मिलने से सब दोष दूर हो जायेगा; इसमें संशय नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज