षोडश (16) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)
महाभारत: विराट पर्व षोडश अध्यायः श्लोक 42-50 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! इतना कहने पर भी जब द्रौपदी वहाँ खड़ी ही रह गयी, तब धर्मराज ने पुनः उससे कहा- ‘सैरन्ध्री! तू अवसर को नहीं पहचानती; इसीलिये नटी की भाँति राजसभा में रो रही है और द्यूतक्रीड़ा में लगे हुए मत्स्यराजकुमारों के खेलने में विघ्न डालती है। सैरन्ध्री! जाओ, गन्धर्व तुम्हारा प्रिय करेंगे। जिसने तुम्हारा अपकार किया है, उसे मारकर तुम्हारा दुःख दूर कर देंगे’। सैरन्ध्री बोली- जिनके बड़े भाई सदा जूआ खेला करते हैं, उन दयालु गन्धर्वों के लिये मैं अत्यन्त धर्मपरायणा रहूँगी। मेरा अपकार करने वाले दुरात्मा उन सबके लिये वध्य हो। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! यों कहकर सुन्दर कटिप्रदेश वाली द्रौपदी तीव्र गति से रानी सुदेष्णा के महल को चली गयी। उसके केश खुले हुए थे और क्रोध से उसकी आँखें लाल हो रही थीं। उस समय रोती हुई द्रौपदी का मुख इस प्रकार सुशोभित हो रहा था, मानो आकाश में मेघमाला के आवरण से मुक्त चन्द्रबिम्ब शोभा पा रहा हो। समस्त अंगों में धूलि से धूसरित गजराजवधू की भाँति शोभा पाने वाली तथा हाथी की सूँड़ के समान जाँघों वाली द्रौपदी स्वामी की आज्ञा शिरोधार्य करके राजसभा से अन्तःपुर में चली गयी। उसके स्तन एक-दूसरे से सटे हुए थे तथा नेत्र मृगशावकों के समान चंचल हो रहे थे। वह कीचक के हाथ से छूटकर शोक और दु:ख से इस प्रकार मलिन हो रही थी, मानो चन्द्रमा की प्रभा वर्षाकाल के मेघों से आच्छादित हो गयी हो। जिसके लिये समस्त पाण्डव अपने प्राण तक दे सकते थे, उसी कृष्णा को उस दशा में देखकर भी धर्मात्मा पाण्डव क्षमा धारण किये बैठे थे। जैसे समुद्र अपने तट की सीमा का उल्लंघन नहीं करता, उसी प्रकार वे अज्ञातवास के लिये स्वीकृत समय का अतिक्रमण नहीं कर रहे थे। सुदेष्णा ने पूछा- वरारोहे! तुम्हें किसने मारा है? शोभने! तू क्योें रोती है? भद्रे! आज किसका सुख समाप्त हो गया है? किसने तुम्हारा अपराध किया है? कमल के समान कमनीय, सुन्दर दाँत, ओठ, नेत्र और नासिका से सुशोभित तथा पूर्णचन्द्र के समान कान्तिमान् तुम्हारा यह मनोहर मुख ऐसा (मलिन) क्यों हो रहा है? तुम रोती हुई अपने मुख पर बहे हुए अश्रुओं को पोंछ रही हो। काली पुतली वाले सरल नेत्रों से सुशोभित, बिम्बफल के समान अरुण अधरों से उपलक्षित और अत्यन्त मनोहर प्रभा से प्रकाशित तुम्हारा मुख इस समय आँसू क्यों गिरा रहा है? वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तब कृष्णा ने लंबी साँसें खींचकर कहा- ‘तुम सब कुछ जानती हुई भी मुझसे क्या पूछ रही हो? स्वयं ही मुझे अपने भाई के पास भेजकर अब इस प्रकार की बातें क्यों बना रही हो? द्रौपदी फिर बोली- मैं तुम्हारे लिये मदिरा लेने गयी थी। वहाँ कीचक ने राजसभा में महाराज के देखते-देखते मुझ पर पदप्रहार किया है; ठीक उसी तरह, जैसे कोई निर्जन वन में किसी असहाय अबला पर आघात करता हो। सुदेष्णा ने कहा- सुन्दर लटों वाली सुन्दरी! यदि तुम्हारी सम्मति हो, तो मैं कीचक को मरवा डालूँ; जो काम से उन्मत्त होकर तुम जैसी दुर्लभ देवी का अपमान कर रहा है। सैरन्ध्री बोली- महारानी! उसे दूसरे ही लोग मार डालेंगे, जिनका कि अपराध वह कर रहा है। मैं तो समझती हूँ, अब वह निश्चय ही यमलोक की यात्रा करेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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