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13:59, 29 मार्च 2018 के समय का अवतरण
षोडश (16) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)
महाभारत: विराट पर्व षोडश अध्यायः श्लोक 37-41 का हिन्दी अनुवाद
जिसके शरीर में चार आवर्त हैं और वे सबके सब प्रदक्षिणभाव से सुशोभित हैं, जिसक अंग समान (सुडौल), शुभ लक्षणों से सम्पन्न और स्निग्ध हैं, वह लात मारने योग्य नहीं है। जिसके हाथों, पैरों और दाँतों में छिद्र दिखायी देते हैं, वह कमलदललोचना कन्या पैरों से ठोकर मारने योग्य कैसे हो सकती है? यह समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न है। इसका मुख पूर्णचन्द्र के समान मनोहर है। यह सुन्दर रूप वाली सुमुखी नारी पैरों से ठुकराने योग्य नहीं है। यह देवांगना के समान सौभाग्यशालिनी, इन्द्राणी के समान शोभासम्पन्न तथा अप्सरा के समान सुन्दर रूप धारण करने वाली है। यह लात मारने योग्य कदापि नहीं है। मनुष्य-जाति में तो ऐसी सती-साध्वी स्त्री सुलभ ही नहीं होती। इसके सम्पूर्ण अंग निर्दोष हैं। हम तो इसे मानवी नहीं; देवी मानते हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! जब इस प्रकार द्रौपदी को देखकर सभासद उसकी प्रशंसा कर रहे थे, उस समय कीचक के प्रति क्रोध के कारण युधिष्ठिर के ललाट पर पसीना आ गया। तदनन्तर सुन्दरी द्रौपदी लंबी साँस खींचकर नीचा मुख किये भूमि पर खड़ी हो गयी और राजा युधिष्ठिर को कुछ कहने के लिये उद्यत देख वह स्वयं मौन रह गयी। तब उन कुरुनन्दन ने अपनी प्यारी रानी से इस प्रकार कहा- ‘सैरन्ध्री! अब तू यहाँ न ठहर। रानी सुदेष्णा के महन में चली जा। पति का अनुसरण करने वाली वीर पत्नियाँ सब क्लेश चुपचाप उठाती हैं, वे साध्वी देवियाँ पतिलोक पर विजय पा लेती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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