"महाभारत विराट पर्व अध्याय 16 श्लोक 37-41" के अवतरणों में अंतर

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वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! जब इस प्रकार [[द्रौपदी]] को देखकर सभासद उसकी प्रशंसा कर रहे थे, उस समय [[कीचक]] के प्रति क्रोध के कारण [[युधिष्ठिर]] के ललाट पर पसीना आ गया। तदनन्तर सुन्दरी द्रौपदी लंबी साँस खींचकर नीचा मुख किये भूमि पर खड़ी हो गयी और राजा युधिष्ठिर को कुछ कहने के लिये उद्यत देख वह स्वयं मौन रह गयी। तब उन कुरुनन्दन ने अपनी प्यारी रानी से इस प्रकार कहा- ‘सैरन्ध्री! अब तू यहाँ न ठहर। रानी [[सुदेष्णा]] के महन में चली जा। पति का अनुसरण करने वाली वीर पत्नियाँ सब क्लेश चुपचाप उठाती हैं, वे साध्वी देवियाँ पतिलोक पर विजय पा लेती हैं।
 
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! जब इस प्रकार [[द्रौपदी]] को देखकर सभासद उसकी प्रशंसा कर रहे थे, उस समय [[कीचक]] के प्रति क्रोध के कारण [[युधिष्ठिर]] के ललाट पर पसीना आ गया। तदनन्तर सुन्दरी द्रौपदी लंबी साँस खींचकर नीचा मुख किये भूमि पर खड़ी हो गयी और राजा युधिष्ठिर को कुछ कहने के लिये उद्यत देख वह स्वयं मौन रह गयी। तब उन कुरुनन्दन ने अपनी प्यारी रानी से इस प्रकार कहा- ‘सैरन्ध्री! अब तू यहाँ न ठहर। रानी [[सुदेष्णा]] के महन में चली जा। पति का अनुसरण करने वाली वीर पत्नियाँ सब क्लेश चुपचाप उठाती हैं, वे साध्वी देवियाँ पतिलोक पर विजय पा लेती हैं।
 
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षोडश (16) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)

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महाभारत: विराट पर्व षोडश अध्यायः श्लोक 37-41 का हिन्दी अनुवाद


सभासद बोले- सम्पूर्ण मनोहर अंगों से सुशोभित यह बड़े-बड़े नेत्रों वाली साध्वी जिसकी धर्मपत्नी है, उसे जीवन में बहुत बड़ा लाभ मिला है। वह किसी प्रकार शोक नहीं कर सकता। जिसका शरीर शुभ और हष्ट-पुष्ट है, जिसका मुख अपने सौन्दर्य से कमल को पराजित कर रहा है तथा जिसकी मन्द-मन्द गति हंस को और मुस्कान कुन्दपुष्पों की शोभा को तिरस्कृत कर रही है, वही यह नारी पदप्रहार के योग्य नहीं है। जिसके बत्तीसों दाँत मसूड़ों में दृढ़तापूर्वक आबद्ध और उज्ज्वल हैं, जिसके केश चिकने और कोमल हैं, वैसी यह नारी लात मारने योग्य कदापि नहीं है। जिसकी हथेली में कमल, चक्र, ध्वजा, शंख, मन्दिर और मगर के चिह्न हैं, वह शुभलक्षणा नारी पैरों से ठुकरायी जाये, यह कदापि उचित नहीं है।

जिसके शरीर में चार आवर्त हैं और वे सबके सब प्रदक्षिणभाव से सुशोभित हैं, जिसक अंग समान (सुडौल), शुभ लक्षणों से सम्पन्न और स्निग्ध हैं, वह लात मारने योग्य नहीं है। जिसके हाथों, पैरों और दाँतों में छिद्र दिखायी देते हैं, वह कमलदललोचना कन्या पैरों से ठोकर मारने योग्य कैसे हो सकती है? यह समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न है। इसका मुख पूर्णचन्द्र के समान मनोहर है। यह सुन्दर रूप वाली सुमुखी नारी पैरों से ठुकराने योग्य नहीं है। यह देवांगना के समान सौभाग्यशालिनी, इन्द्राणी के समान शोभासम्पन्न तथा अप्सरा के समान सुन्दर रूप धारण करने वाली है। यह लात मारने योग्य कदापि नहीं है। मनुष्य-जाति में तो ऐसी सती-साध्वी स्त्री सुलभ ही नहीं होती। इसके सम्पूर्ण अंग निर्दोष हैं। हम तो इसे मानवी नहीं; देवी मानते हैं।

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! जब इस प्रकार द्रौपदी को देखकर सभासद उसकी प्रशंसा कर रहे थे, उस समय कीचक के प्रति क्रोध के कारण युधिष्ठिर के ललाट पर पसीना आ गया। तदनन्तर सुन्दरी द्रौपदी लंबी साँस खींचकर नीचा मुख किये भूमि पर खड़ी हो गयी और राजा युधिष्ठिर को कुछ कहने के लिये उद्यत देख वह स्वयं मौन रह गयी। तब उन कुरुनन्दन ने अपनी प्यारी रानी से इस प्रकार कहा- ‘सैरन्ध्री! अब तू यहाँ न ठहर। रानी सुदेष्णा के महन में चली जा। पति का अनुसरण करने वाली वीर पत्नियाँ सब क्लेश चुपचाप उठाती हैं, वे साध्वी देवियाँ पतिलोक पर विजय पा लेती हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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