द्विशततम (200) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
महाभारत: वन पर्व: द्विशततम अध्याय: श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर! अब मैं तुम्हें यह बताता हूँ कि कैसे व्यक्ति को दान देना चाहिये। जो दाता को और अपने आपको भी तारने की शक्ति रखता हो। सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञाता मानव उसी ब्राह्मण को दान दे, जो दाता का तथा अपना भी संसार सागर से उद्धार कर सके। वही शक्तिशाली ब्राह्मण है। कुन्तीनन्दन! अतिथियों को भोजन कराने से अग्निदेव जितने संतुष्ट होते हैं, उतना संतोष उन्हें हविष्य का हवन करने तथा पुष्प और चन्दन चढ़ाने से भी नहीं होता। इसलिये तुम सभी अतिथियों को भोजन देने का प्रयत्न करो। राजन्! जो लोग अतिथि को चरण धोने के लिये जल, पैर में मलने के लिये तेल, उजाले के लिये दीपक, भोजन के लिये अन्न तथा रहने के लिये स्थान देते हैं, वे कभी यमराज के यहाँ नहीं जाते। नृपश्रेष्ठ! देवविग्रहों पर चढ़े हुए चन्दन-पुष्प आदि को यथा समय उतारना, ब्राह्मणों की जूठन साफ करना, उन्हें चन्दन-माला आदि से अंलकृत करना, उनकी सेवा-पूजा करना और उनके पैर आदि अंगों को दबाना, इनमें से एक-एक कार्य गोदान से भी अधिक महत्व रखता है। कपिला गौ का दान करने से मनुष्य नि:सन्देह सब पापों से मुक्त्त हो जाता है। इसलिये कपिला गौ को अलंकृत करके ब्राह्मण को दान करना चाहिये। दान लेने वाला ब्राह्मण श्रोत्रिय हो, निर्धन हो, ग्रहस्थ हो, नित्य अग्निहोत्र करता हो, दरिद्रता के कारण जिसे स्त्री और पुत्रों के तिरस्कार सहने पड़ते हों तथा दाता ने न तो जिससे प्रत्युपकार प्राप्त किया हो और न आगे प्रत्युपकार प्राप्त होने की सम्भावना ही हो। भारत! ऐसे ही लोगों को गोदान करना चाहिये, धनवानों को नहीं। भरतश्रेष्ठ! धनवानों को देने से क्या लाभ है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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