महाभारत वन पर्व अध्याय 186 श्लोक 26-30

षडशीत्यधिकशततम (186) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: षडशीत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 26-30 का हिन्दी अनुवाद

तार्क्ष्‍यने पूछा-देवि! जिसे परम कल्याणस्वरूप मानते हुए मुनिजन अत्यन्त विश्वासपूर्वक इन्द्रियों आदिका निग्रह करते हैं तथा जिस परम मोक्ष-स्वरूपमें और धीरे पुरुष प्रवेश करते हैं, उस शोकरहित परम मोक्ष पदका वर्णन करो; क्योंकि जिस परम मोक्ष पदको सांख्ययोगी और कर्मयोगी जानते हैं, उस सनातन मोक्ष-तत्त्वको मैं नहीं जानता।

सरस्वती बोली-स्वाध्यायरूप योगमें लगे हुए तथा तपको ही धन माननेवाले योगी व्रत-पुण्य और योगके साधनोंसे जिसे प्रख्यात, परात्पर, एवं पुरातन पदको प्राप्तकर वेदवेता उसी परमपदका आश्रय लेते हैं। उस परब्रह्मामें ब्रह्माण्डरूपी एक विशाल बेंतका वृक्ष हैं, जो भोग-स्थानरूपी अनन्त शाखाओं से युक्त तथा शब्दादि विषयरूपी पवित्र सुगन्धसे सम्पन्न है। ( उस ब्रह्माण्डरूपी वृक्षका मूल अविद्या है। ) उस अविद्यारूपी मूलसे भोगवासनामयी निरन्तर बहनेवाली अनन्त नदियां उत्पन्न होती हैं।

वे नदियां उपरसे तो रमणीय और पवित्र सुवाससु युक्त प्रतीत होती हैं तथा मधुके समान मधुर एवं जलके समान तृप्ति कारक विषयोंको बहाया करती हैं। परंतु वास्तवमें वे सब भूने हुए जौ के समान फल देनेंमें असमर्थ, पूओंके समान अनेक छिद्रोंवाली, हिंसासे मिल सकनेवाली अर्थात् मांसके समान अपवित्र, सूखे शाकके समान सारशून्य और खीरके समान रुचिकर लगनेवाली होनेपर बालूके कीचड़के समान चित्तमें मलिनता उत्पन्न करने वाली हैं।

बालूके कणोंके समान परस्पर विलग एवं ब्रह्माणरूपी बेंतके वृक्षकी शाखाओंमें बहनेवाली हैं।। मुने! इन्द्र, अग्नि और पवन आदि मरुद्रणोंके साथ देवता लोग जिस ब्रह्माको प्राप्त करनेके लिये श्रेष्ठ यज्ञोंद्वारा पूजन करते हैं, वह मेरा परमपद है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्वमें सरस्वती-तार्क्ष्‍यसंवादविषयक एक सौ छियासीवां अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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