"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 128 श्लोक 15-27" के अवतरणों में अंतर

 
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कृतघ्‍न, नृशसं, आलसी तथा दूसरों का अपकार करने वाले पुरुषों में जो आशा होती हैं, वह (कभी पूर्ण न होने के कारण चिन्‍ता से दुर्बल बना देती है; इसलिये वह) मुझसे भी अत्‍यन्‍त कृश है। इकलौते बेटे का बाप जब अपने पुत्र के खो जाने या परदेश में चले जाने पर उसका कोई समाचार नहीं जान पाता, तब उसके मन में जो आशा रहती हैं, वह मुझसे भी अत्‍यन्‍त कृश होती है। नरेन्‍द्र! वृद्ध अवस्‍थावाली नारियों के हृदय में जो पुत्र पैदा होने के लिये आशा बनी रहती है तथा धनियों के मन में जो अधिकाधिक धनलाभ की आशा रहती है, वह मुझसे अत्‍यन्‍त कृश है। तरुण अवस्‍था आने पर विवाह की चर्चा सुनकर ब्‍याह की इच्‍छा रखने वाली कन्‍याओं के हृदय में जो आशा होती हैं, वह मुझसे भी अत्‍यन्‍त कृश होती है<ref>आशा को अत्यन्त कृश कहने का तात्पर्य यह है कि वह मनुष्य को अत्यन्त कृश बना देती है</ref>
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कृतघ्‍न, नृशसं, आलसी तथा दूसरों का अपकार करने वाले पुरुषों में जो आशा होती है, वह (कभी पूर्ण न होने के कारण चिन्‍ता से दुर्बल बना देती है; इसलिये वह) मुझसे भी अत्‍यन्‍त कृश है। इकलौते बेटे का बाप जब अपने पुत्र के खो जाने या परदेश में चले जाने पर उसका कोई समाचार नहीं जान पाता, तब उसके मन में जो आशा रहती है, वह मुझसे भी अत्‍यन्‍त कृश होती है। नरेन्‍द्र! वृद्ध अवस्‍थावाली नारियों के हृदय में जो पुत्र पैदा होने के लिये आशा बनी रहती है तथा धनियों के मन में जो अधिकाधिक धनलाभ की आशा रहती है, वह मुझसे अत्‍यन्‍त कृश है। तरुण अवस्‍था आने पर विवाह की चर्चा सुनकर ब्‍याह की इच्‍छा रखने वाली कन्‍याओं के हृदय में जो आशा होती है, वह मुझसे भी अत्‍यन्‍त कृश होती है<ref>आशा को अत्यन्त कृश कहने का तात्पर्य यह है कि वह मनुष्य को अत्यन्त कृश बना देती है</ref>
  
राजन! ब्राह्मण श्रेष्ठ उस ऋषि की वह बात सुनकर राजा अपनी रानी के साथ उनके चरणों का मस्‍तक से स्‍पर्श करके वहीं गिर पड़े। राजा बोले- भगवन! मैं आपको प्रसन्‍न करना चाहता हूँ। मुझे अपने पुत्र से मिलने की बड़ी इच्‍छा है। द्विजश्रेष्ठ! आपने मुझसे इस समय जो कुछ कहा है, आपका यह सारा कथन सत्‍य है, इसमें संदेह नहीं। तब धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ [[तनु|भगवान तनु]] ने हँसकर अपनी [[तपस्या |तपस्या]] और शास्त्र ज्ञान के प्रभाव से राजकुमार को शीघ्र वहाँ बुला दिया। इस प्रकार उनके पुत्र को वहाँ बुलाकर तथा राजा को उलाहना देकर धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ तनु मुनि ने उन्‍हें अपने साक्षात धर्मस्‍वरुप का दर्शन कराया। दिव्‍य और अद्भुत दिखायी देनेवाले अपने स्‍वरुप उन्‍हें दर्शन कराकर क्रोध और पाप से रहित तनु मुनि निकटवर्ती वन में चले गये।  [[ऋषभ|ऋषभ मुनि]] कहते हैं- राजन! मैंने यह सब कुछ अपनी आँखों देखा हैं और मुनि का वह कथन भी अपने कानों सुना है। ऐसे ही तुम भी शरीर को अत्‍यन्‍त कृश बना देनेवाली इस मृग विषयक दुराशा को शीघ्र ही त्‍याग दो।  
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राजन! [[ब्राह्मण]] श्रेष्ठ उस ऋषि की वह बात सुनकर राजा अपनी रानी के साथ उनके चरणों का मस्‍तक से स्‍पर्श करके वहीं गिर पड़े। राजा बोले- भगवन! मैं आपको प्रसन्‍न करना चाहता हूँ। मुझे अपने पुत्र से मिलने की बड़ी इच्‍छा है। द्विजश्रेष्ठ! आपने मुझसे इस समय जो कुछ कहा है, आपका यह सारा कथन सत्‍य है, इसमें संदेह नहीं। तब धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ [[तनु|भगवान तनु]] ने हँसकर अपनी [[तपस्या |तपस्या]] और शास्त्र ज्ञान के प्रभाव से राजकुमार को शीघ्र वहाँ बुला दिया। इस प्रकार उनके पुत्र को वहाँ बुलाकर तथा राजा को उलाहना देकर धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ तनु मुनि ने उन्‍हें अपने साक्षात धर्मस्‍वरुप का दर्शन कराया। दिव्‍य और अद्भुत दिखायी देने वाले अपने स्‍वरुप उन्‍हें दर्शन कराकर क्रोध और पाप से रहित तनु मुनि निकटवर्ती वन में चले गये।  [[ऋषभ|ऋषभ मुनि]] कहते हैं- राजन! मैंने यह सब कुछ अपनी आँखों देखा हैं और मुनि का वह कथन भी अपने कानों सुना है। ऐसे ही तुम भी शरीर को अत्‍यन्‍त कृश बना देने वाली इस मृग विषयक दुराशा को शीघ्र ही त्‍याग दो।  
  
[[भीष्‍म|भीष्‍म जी]] कहते हैं- राजन! महात्‍मा ऋषभ के ऐसा कहने पर [[सुमित्र (राजा)|सुमि‍त्र]] ने शरीर को अत्‍यन्‍त दुर्बल बनाने वाली वह आशा तुरंत ही त्‍याग दी। महाराज! कुन्‍तीकुमार! तुम भी मेरा यह कथन सुनकर आशा को त्‍याग दो और हिमालय पर्वत के समान स्थिर हो जाओं। महाराज! ऐसे संकट उपस्थित होने पर भी तुम यहाँ उपयुक्‍त प्रश्‍न करते और उनका योग्‍य उत्तर सुनते हो; इसलिये [[दुर्योधन]] के साथ जो संधि न हो सकी, उसको लेकर तुम्‍हें संतप्त नहीं होना चाहिये।
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[[भीष्‍म|भीष्‍म जी]] कहते हैं- राजन! महात्‍मा ऋषभ के ऐसा कहने पर [[सुमित्र (राजा)|सुमि‍त्र]] ने शरीर को अत्‍यन्‍त दुर्बल बनाने वाली वह आशा तुरंत ही त्‍याग दी। महाराज! कुन्‍तीकुमार! तुम भी मेरा यह कथन सुनकर आशा को त्‍याग दो और हिमालय पर्वत के समान स्थिर हो जाओ। महाराज! ऐसे संकट उपस्थित होने पर भी तुम यहाँ उपयुक्‍त प्रश्‍न करते और उनका योग्‍य उत्तर सुनते हो; इसलिये [[दुर्योधन]] के साथ जो संधि न हो सकी, उसको लेकर तुम्‍हें संतप्त नहीं होना चाहिये।
  
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इसप्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तगर्त राजधर्मानुशासनपर्व में ॠषभगीताविषयक एक सौ अटाईसवां अध्‍याय पूरा हुआ।</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इसप्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तगर्त राजधर्मानुशासनपर्व में ॠषभगीताविषयक एक सौ अटाईसवां अध्‍याय पूरा हुआ।</div>

13:14, 29 मार्च 2018 के समय का अवतरण

अष्‍टाविंशत्‍यधिकशततम (128) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टाविंशत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 15-27 का हिन्दी अनुवाद

कृतघ्‍न, नृशसं, आलसी तथा दूसरों का अपकार करने वाले पुरुषों में जो आशा होती है, वह (कभी पूर्ण न होने के कारण चिन्‍ता से दुर्बल बना देती है; इसलिये वह) मुझसे भी अत्‍यन्‍त कृश है। इकलौते बेटे का बाप जब अपने पुत्र के खो जाने या परदेश में चले जाने पर उसका कोई समाचार नहीं जान पाता, तब उसके मन में जो आशा रहती है, वह मुझसे भी अत्‍यन्‍त कृश होती है। नरेन्‍द्र! वृद्ध अवस्‍थावाली नारियों के हृदय में जो पुत्र पैदा होने के लिये आशा बनी रहती है तथा धनियों के मन में जो अधिकाधिक धनलाभ की आशा रहती है, वह मुझसे अत्‍यन्‍त कृश है। तरुण अवस्‍था आने पर विवाह की चर्चा सुनकर ब्‍याह की इच्‍छा रखने वाली कन्‍याओं के हृदय में जो आशा होती है, वह मुझसे भी अत्‍यन्‍त कृश होती है[1]

राजन! ब्राह्मण श्रेष्ठ उस ऋषि की वह बात सुनकर राजा अपनी रानी के साथ उनके चरणों का मस्‍तक से स्‍पर्श करके वहीं गिर पड़े। राजा बोले- भगवन! मैं आपको प्रसन्‍न करना चाहता हूँ। मुझे अपने पुत्र से मिलने की बड़ी इच्‍छा है। द्विजश्रेष्ठ! आपने मुझसे इस समय जो कुछ कहा है, आपका यह सारा कथन सत्‍य है, इसमें संदेह नहीं। तब धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ भगवान तनु ने हँसकर अपनी तपस्या और शास्त्र ज्ञान के प्रभाव से राजकुमार को शीघ्र वहाँ बुला दिया। इस प्रकार उनके पुत्र को वहाँ बुलाकर तथा राजा को उलाहना देकर धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ तनु मुनि ने उन्‍हें अपने साक्षात धर्मस्‍वरुप का दर्शन कराया। दिव्‍य और अद्भुत दिखायी देने वाले अपने स्‍वरुप उन्‍हें दर्शन कराकर क्रोध और पाप से रहित तनु मुनि निकटवर्ती वन में चले गये। ऋषभ मुनि कहते हैं- राजन! मैंने यह सब कुछ अपनी आँखों देखा हैं और मुनि का वह कथन भी अपने कानों सुना है। ऐसे ही तुम भी शरीर को अत्‍यन्‍त कृश बना देने वाली इस मृग विषयक दुराशा को शीघ्र ही त्‍याग दो।

भीष्‍म जी कहते हैं- राजन! महात्‍मा ऋषभ के ऐसा कहने पर सुमि‍त्र ने शरीर को अत्‍यन्‍त दुर्बल बनाने वाली वह आशा तुरंत ही त्‍याग दी। महाराज! कुन्‍तीकुमार! तुम भी मेरा यह कथन सुनकर आशा को त्‍याग दो और हिमालय पर्वत के समान स्थिर हो जाओ। महाराज! ऐसे संकट उपस्थित होने पर भी तुम यहाँ उपयुक्‍त प्रश्‍न करते और उनका योग्‍य उत्तर सुनते हो; इसलिये दुर्योधन के साथ जो संधि न हो सकी, उसको लेकर तुम्‍हें संतप्त नहीं होना चाहिये।

इसप्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तगर्त राजधर्मानुशासनपर्व में ॠषभगीताविषयक एक सौ अटाईसवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आशा को अत्यन्त कृश कहने का तात्पर्य यह है कि वह मनुष्य को अत्यन्त कृश बना देती है

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