"महाभारत विराट पर्व अध्याय 16 श्लोक 21-22" के अवतरणों में अंतर

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षोडश (16) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: षोडश अध्यायः श्लोक 21-22 का हिन्दी अनुवाद


उस समय वह प्रतिज्ञारूप धर्म से आबद्ध होने के कारण अपने स्वरूप को छिपा रही थी; किन्तु उसके नेत्र मानो जला रहे हों, इस प्रकार भयंकर हो उठे थे। द्रौपदी ने कहा - जो स्वभाव से ही प्रजाजनों की रक्षा में लगे हुए हैं, सदा धर्म और सत्य के मार्ग में स्थित हैं तथा प्रजा और अपनी संतान में कोई अनतर नहीं समझते, उन अमित तेजस्वी राजाओं को चाहिये कि वे सदा आश्रितों का पालन एवं संरक्षण करें। जो प्रियजनों तथा द्वेषपात्रों में भी समान भाव रखते हैं, प्रजाजनों में विवाद आरम्भ होने पर जो राजा धर्मासन पर बैठकर समानभाव से प्रत्येक कार्य पर विचार करते हैं, वे दोनों लोकों को जीत लेते हैं।। राजन्! आप धर्म के आसन पर बैठे हैं। मुझ निरपराध अबला की रक्षा कीजिये। महाराज! मैंने कोई अपराध नहीं किया है, तो भी दुरात्मा कीचक ने आपके देखते-देखते मुझको लात मारी है; मेरे साथ (खरीदे हुए) दास का सा बर्ताव किया है।

मत्स्यराज! जैसे पिता अपने औरस पुत्रों की रक्षा करता है, उसी प्रकार आप अपने प्रजाजनों का संरक्षण कीजिये। जो मोह में डूबा हुआ राजा अधर्मयुक्त कार्य करता है, उस दुरात्मा को उसके शत्रु शीघ्र ही वश्सा में कर लेते हैं। आप मत्स्यकुल में उत्पन्न हुए हैं। सत्य ही मत्स्यनरेशों का महान् आश्रय रहा है। आप ही इस धर्मपरायण कुल में ऐसे ही धर्मात्मा पैदा हुए हैं।अतः नरेश! मैं आपसे शरण देने के लिये रुदन करती हूँ। राजेन्द्र! आज मुझे इस पापी कीचक से बचाइये। पुरुषाधम कीचक यहाँ मुझे असहाय जानकर जार रहा है। यह नीच अपने धर्म की ओर नहीं देखता है। जो भूमिपाल न करने योग्य कार्यों का आरम्भ नहीं करतके, करने योग्य कर्तव्यों का निरन्तर पालन करते हैं और सदा प्रजा के साथ उत्तम बर्ताव करते हैं, वे स्वर्गलोक में जाते हैं।

परंतु राजन्! जो राजा कर्तव्य और अकर्तव्य के अन्तर को जानते हुए भी स्वेच्छाचारितावश प्रजावर्ग के साथ पापाचार करते हैं, वे अधोमुख हो नरक में जाते हैं।। राजालोग यज्ञ, दान अथवा गुरुसेवा से भी वैसा धर्म (पुण्य) नहीं होता है, जैसा कि अपने कर्तव्य का ठीक-ठीक पालन करने से प्राप्त करते हैं। पूर्वकाल में सृष्टि की रचना के समय ब्रह्माजी ने क्रिया करने और न करने की स्थिति में पुण्य ओर पाप की प्राप्ति के विषय में इस प्रकार कहा था- ‘मनुष्यों! तुम लोगों को इस पृथ्वीलोक मेें द्वन्द्वरूप में प्राप्त धर्म और अधर्म के विषय में भली-भाँति समझकर कर्म करना चाहिये; क्योंकि अचछी या बुरी जैसी नीयत से काम किया जाता है, वैसा ही कर्मजनित फल मिलता है। ‘कल्याणकारी मनुष्य कल्याण का और पापाचारी पुरुष पाप के फलस्वरूप दुःख का भागी होता है। जो इनके संसर्ग में आता है, वह भी (कर्मानुसार) स्वर्ग या नरक में जाता है।

‘मनुष्य मोहपूर्वक सत्कर्म या दुष्कर्म करके मृत्यु के बाद भी मन-ही-मन पश्चाताप करता रहता है’। इस प्रकार उत्तम वचन कहकर ब्रह्माजी ने इन्द्र को विदा कर दिया। इन्द्र भी ब्रह्माजी से पूछकर देवलोक में आये और देवसाम्राज्य का पालन करने लगे। राजेनद्र! देवाधिदेव परमेष्ठी ब्रह्माजी ने जैसा उपदेश दिया है, उसके अनुसार आप भी कर्तव्य और अकर्तव्य के निर्णय में दृढ़ता पूर्वक लगे रहिये।


वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! पाञ्चालराजकुमारी द्रौपदी के इस प्रकार विलाप करने पर भी मत्स्यराज विराट बलाभिमानी कीचक पर शासन करने में असमर्थ ही रहे।। उन्होंने शान्तिपूर्वक समडा-बुझाकर ही सूत को वैसा करने से मना किया। यद्यपि कीचक ने भारी अपराध किया था, तो भी मत्स्यराज ने उसे अपराध के अनुसार दण्ड नहीं दिया; यह देख देवकन्या के समान सुन्दरी एवं व्यवहार धर्म को जानने वाली साध्वी द्रौपदी उत्तम धर्म का स्मरण करती हुई राजा विराट तथा समस्त सभासदों की ओर देखकर दुखी हृदय से इस प्रकार बोली-।। ‘जिन मेरे पतियों के वैरी को पाँच देशों को पार करके छठे देश में रहने पर भी भय के मारे नींद नहीं आती, आज उन्हीं की मानिनी पत्नी मुझ असहाय अबला को एक सूतपुत्र ने लात से मारा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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