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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: पच्चदशधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: पच्चदशधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
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− | + | अनघ! मैं [[नरक]] में गिर रहा था। आज आपने मेरा उद्धार कर दिया। इस प्रकार जब मुझे आपका दर्शन मिल गया, तब निश्चय ही आपके उपदेश के अनुसार भविष्य में सब कुछ होगा। राजा [[ययाति]] स्वर्ग से गिर गये थे; परंतु उनके उत्तम स्वभाव वाले दौहित्रों (पुत्री के पुत्रों) ने पुन: उनका उद्धार कर दिया-वे पूर्ववत् [[स्वर्गलोक]] में प्रतिष्ठित हो गये। पुरुषसिंह! इसी प्रकार आपने भी आज मुझ ब्राह्मण को नरक में गिरने से बचाया है। मैं आपके कहने के अनुसार माता-पिता की सेवा करूँगा। जिसका अन्त:करण शुद्ध नहीं है, वह धर्म-अधर्म के निर्णय को बतला नहीं सकता। आश्चर्य है कि यह सनातन धर्म, जिसके स्वरूप को समझना अत्यन्त कठिन है, शूद्रयोनि के मनुष्य में भी विद्यमान है। मैं आपको शूद्र नहीं मानता। आपका जो शूद्रयोनि में जन्म हो गया है, इसका कोई विशेष कारण होना चाहिये। महामते! जिस विशेष कर्म के कारण आपको यह शूद्रयोनि प्राप्त हुई, उसे मैं यथार्थ रूप से जानना चाहता हूँ। आप सत्य और पवित्र अन्त:करण के विशवास के अनुसार स्वेच्छापूर्वक मुझे सब कुछ बताइये। | |
− | + | धर्मव्याध ने कहा- विप्रवर! मुझे ब्राह्मणों का अपराध कभी नहीं करना चाहिये। अनघ! मेरे पूर्वजन्म के शरीर द्वारा जो घटना घटित हुई है, वह सब बताता हूं, सुनिये। मैं पूर्वजन्म में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण का पुत्र और वेदाध्ययनपरायण ब्राह्मण था। वेदांगों का पारंगत विद्वान् माना जाता था। मैं विद्याध्ययन में अत्यन्त कुशल था। ब्राह्मण! अपने ही दोषों के कारण मुझे इस दूरवस्था में आना पड़ा है। पूर्वजन्म में जब मैं ब्राह्मण था, एक धनुर्वेद-परायण राजा के साथ मेरी मित्रता हो गयी थी। उनके संसर्ग से मैं धनुर्वेद की शिक्षा लेने लगा और धनुष चलाने की कला में मैंने श्रेष्ठ योग्यता प्राप्त कर ली। ब्रह्मन्! इसी समय राजा अपने मन्त्रियों तथा प्रधान योद्धाओं के साथ शिकार खेलने के लिये निकला। उन्होंने एक ऋषि के आश्रम के निकट बहुत-से हिंसक पशुओं का वध किया। द्विजश्रेष्ठ! तदनन्तर मैंने भी एक भयानक बाण छोड़ा। उसकी गांठ कुछ झुकी हुई थी। उस बाण से एक [[ऋषि]] मारे गये। | |
− | मैंने साहस करके उन | + | ब्रह्मन्! [[बाण अस्त्र|बाण]] लगते ही वे मुनि पृथ्वी पर गिर पड़े और अपने आर्तनाद से वन्य प्रदेश को गुंजाते हुए बोले- ‘आह! मैं तो किसी का कोई अपराध नहीं करता हूँ। फिर किसने यह पापकर्म कर डाला। प्रभो! मैंने उन्हें हिंसक पशु समझकर बाण मारा था। अत: सहसा उनके पास जा पहुँचा। वहाँ जाकर देखा कि झुकी हुई गांठ वाले उस बाण से एक ऋषि घायल होकर धरती पर पड़े हैं। यह न करने योग्य पाप कर डालने के कारण मेरे मन में उस समय बड़ी पीड़ा हुई। वे उग्र तपस्वी ब्राह्मण उस समय धरती पर पड़े-पड़े कराह रहे थे। मैंने साहस करके उन मुनीश्वर से कहा- ‘भगवन्। अनजान में मेरे द्वारा यह अपराध बन गया है। अत: आप यह सब क्षमा कर दें।' मेरी बात सुनकर ऋषि क्रोध से व्याकुल हो गये और उत्तर देते हुए बोले- 'निर्दयी ब्राह्मण! तू शूद्रयोनि में जन्म लेकर व्याध होगा’। |
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+ | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तगर्त मार्कण्डेयसमस्यापर्व में ब्राह्मणव्याध संवाद विषयक दो सौ पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> | ||
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[[चित्र:Next.png|link=महाभारत वन पर्व अध्याय 216 श्लोक 1-17]] | [[चित्र:Next.png|link=महाभारत वन पर्व अध्याय 216 श्लोक 1-17]] |
12:01, 5 मार्च 2018 के समय का अवतरण
पच्चदशधिकद्विशततम (215) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: पच्चदशधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद
धर्मव्याध ने कहा- विप्रवर! मुझे ब्राह्मणों का अपराध कभी नहीं करना चाहिये। अनघ! मेरे पूर्वजन्म के शरीर द्वारा जो घटना घटित हुई है, वह सब बताता हूं, सुनिये। मैं पूर्वजन्म में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण का पुत्र और वेदाध्ययनपरायण ब्राह्मण था। वेदांगों का पारंगत विद्वान् माना जाता था। मैं विद्याध्ययन में अत्यन्त कुशल था। ब्राह्मण! अपने ही दोषों के कारण मुझे इस दूरवस्था में आना पड़ा है। पूर्वजन्म में जब मैं ब्राह्मण था, एक धनुर्वेद-परायण राजा के साथ मेरी मित्रता हो गयी थी। उनके संसर्ग से मैं धनुर्वेद की शिक्षा लेने लगा और धनुष चलाने की कला में मैंने श्रेष्ठ योग्यता प्राप्त कर ली। ब्रह्मन्! इसी समय राजा अपने मन्त्रियों तथा प्रधान योद्धाओं के साथ शिकार खेलने के लिये निकला। उन्होंने एक ऋषि के आश्रम के निकट बहुत-से हिंसक पशुओं का वध किया। द्विजश्रेष्ठ! तदनन्तर मैंने भी एक भयानक बाण छोड़ा। उसकी गांठ कुछ झुकी हुई थी। उस बाण से एक ऋषि मारे गये। ब्रह्मन्! बाण लगते ही वे मुनि पृथ्वी पर गिर पड़े और अपने आर्तनाद से वन्य प्रदेश को गुंजाते हुए बोले- ‘आह! मैं तो किसी का कोई अपराध नहीं करता हूँ। फिर किसने यह पापकर्म कर डाला। प्रभो! मैंने उन्हें हिंसक पशु समझकर बाण मारा था। अत: सहसा उनके पास जा पहुँचा। वहाँ जाकर देखा कि झुकी हुई गांठ वाले उस बाण से एक ऋषि घायल होकर धरती पर पड़े हैं। यह न करने योग्य पाप कर डालने के कारण मेरे मन में उस समय बड़ी पीड़ा हुई। वे उग्र तपस्वी ब्राह्मण उस समय धरती पर पड़े-पड़े कराह रहे थे। मैंने साहस करके उन मुनीश्वर से कहा- ‘भगवन्। अनजान में मेरे द्वारा यह अपराध बन गया है। अत: आप यह सब क्षमा कर दें।' मेरी बात सुनकर ऋषि क्रोध से व्याकुल हो गये और उत्तर देते हुए बोले- 'निर्दयी ब्राह्मण! तू शूद्रयोनि में जन्म लेकर व्याध होगा’।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तगर्त मार्कण्डेयसमस्यापर्व में ब्राह्मणव्याध संवाद विषयक दो सौ पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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