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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: द्विशततम अध्याय: श्लोक 96-110 का हिन्दी अनुवाद</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: द्विशततम अध्याय: श्लोक 96-110 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
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− | + | त्रिदण्ड धारण करना, मौन रहना, सिर पर जटा का बोझ ढोना, मूंछ मुड़ाना, शरीर में वल्कल और मृगचर्म लपेटे रहना, व्रत का आचरण करना, नहाना, [[अग्निहोत्र]] करना, वन में रहना और शरीर को सुखा देना-ये सभी भाव यदि शुद्ध न हों तो व्यर्थ हैं। | |
− | + | राजेन्द्र! चक्षु आदि इन्द्रियों के आहार को छोड़ देना कठिन नहीं है; क्योंकि इन्द्रियों के छहों विषयों का उपभोग न करने से वह अपने आप सुगमता से हो जाता है, परंतु उनमें से मन बड़ा विकारी है, इस कारण भाव की शुद्धि के बिना उसको वश में करना अत्यन्त दुष्कर है। जो मन, वाणी, क्रिया और बुद्धि द्वारा कभी पाप नहीं करते हैं, वे ही महात्मा तपस्वी हैं। शरीर को सुखा देना ही तपस्या नहीं है। जिसने व्रत, उपवास आदि के द्वारा शरीर को तो शुद्ध कर लिया और जो नाना प्रकार के पापकर्म भी नहीं करता, किंतु जिसके मन में अपने कुटुम्बीजनों के प्रति दया नहीं आती, उसकी वह निर्दयता उसके तप का नाश करने वाली है; केवल भोजन छोड़ देने का ही नाम तपस्या नहीं है। जो निरन्तर घर पर रहकर भी पवित्र भाव से रहता है, सद्गुणों से विभूषित होता है और जीवन भर सब प्राणियों पर दया रखता है, उसे मुनि ही समझना चाहिये; वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। भोजन छोड़ने आदि से पापकर्मों का शोधन हो जाता हो, ऐसी बात नहीं है। हां, भोजन त्याग देने से यह रक्त मांस से लिपा हुआ शरीर अवश्य क्षीण हो जाता है। | |
− | + | शास्त्रों द्वारा जिनका विधान नहीं किया गया है, ऐसे कार्य करने से केवल क्लेश ही हाथ लगता है, उनसे पाप नष्ट नहीं किये जा सकते। [[अग्निहोत्र]] आदि शुभकर्म भावशून्य अर्थात् श्रद्धारहित मनुष्य के पापकर्मों को दग्ध नहीं कर सकते। मनुष्य पुण्य के प्रभाव से ही उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। उपवास भी पुण्य से अर्थात निष्काम भाव से ही शुद्धि का कारण होता है। (बिना शुद्ध भाव के) केवल फल-मूल खाने, मौन रहने, हवा पीने, सिर मुंड़ाने, एक स्थान पर कुटी बनाकर रहने, सिर पर जटा रखाने, वेदी पर सोने, नित्य उपवास, अग्निसेवन, जलप्रवेश तथा भूमिशयन करने से भी शुद्धि नहीं होती है। | |
+ | तत्त्वज्ञान या सत्कर्म से ही जरा, मृत्यु तथा रोगों का नाश होता है और उत्तम पद (मुक्ति) की प्राप्ति होती है। जैसे आग में जले हुए बीज फिर नहीं उगते हैं, उसी प्रकार ज्ञान के द्वारा अविद्या आदि क्लेशों के नष्ट हो जाने पर आत्मा का पुन: उनसे संयोग नहीं होता। जीवात्मा से परित्यक्त होने पर सारे शरीर काठ और दीवार की भाँति जड़वत् होकर महासागर में उठे हुए फेनों की तरह नष्ट हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है। एक या आधे श्लोक से भी यदि सम्पूर्ण भूतों के हृदयदेश में शयन करने वाले परमात्मा का ज्ञान हो जाये, तो उसके लिये सम्पूर्ण शास्त्रों के अध्ययन का प्रयोजन समाप्त हो जाता है। | ||
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[[चित्र:Next.png|link=महाभारत वन पर्व अध्याय 200 श्लोक 111-122]] | [[चित्र:Next.png|link=महाभारत वन पर्व अध्याय 200 श्लोक 111-122]] |
15:15, 27 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण
द्विशततम (200) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
महाभारत: वन पर्व: द्विशततम अध्याय: श्लोक 96-110 का हिन्दी अनुवाद
राजेन्द्र! चक्षु आदि इन्द्रियों के आहार को छोड़ देना कठिन नहीं है; क्योंकि इन्द्रियों के छहों विषयों का उपभोग न करने से वह अपने आप सुगमता से हो जाता है, परंतु उनमें से मन बड़ा विकारी है, इस कारण भाव की शुद्धि के बिना उसको वश में करना अत्यन्त दुष्कर है। जो मन, वाणी, क्रिया और बुद्धि द्वारा कभी पाप नहीं करते हैं, वे ही महात्मा तपस्वी हैं। शरीर को सुखा देना ही तपस्या नहीं है। जिसने व्रत, उपवास आदि के द्वारा शरीर को तो शुद्ध कर लिया और जो नाना प्रकार के पापकर्म भी नहीं करता, किंतु जिसके मन में अपने कुटुम्बीजनों के प्रति दया नहीं आती, उसकी वह निर्दयता उसके तप का नाश करने वाली है; केवल भोजन छोड़ देने का ही नाम तपस्या नहीं है। जो निरन्तर घर पर रहकर भी पवित्र भाव से रहता है, सद्गुणों से विभूषित होता है और जीवन भर सब प्राणियों पर दया रखता है, उसे मुनि ही समझना चाहिये; वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। भोजन छोड़ने आदि से पापकर्मों का शोधन हो जाता हो, ऐसी बात नहीं है। हां, भोजन त्याग देने से यह रक्त मांस से लिपा हुआ शरीर अवश्य क्षीण हो जाता है। शास्त्रों द्वारा जिनका विधान नहीं किया गया है, ऐसे कार्य करने से केवल क्लेश ही हाथ लगता है, उनसे पाप नष्ट नहीं किये जा सकते। अग्निहोत्र आदि शुभकर्म भावशून्य अर्थात् श्रद्धारहित मनुष्य के पापकर्मों को दग्ध नहीं कर सकते। मनुष्य पुण्य के प्रभाव से ही उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। उपवास भी पुण्य से अर्थात निष्काम भाव से ही शुद्धि का कारण होता है। (बिना शुद्ध भाव के) केवल फल-मूल खाने, मौन रहने, हवा पीने, सिर मुंड़ाने, एक स्थान पर कुटी बनाकर रहने, सिर पर जटा रखाने, वेदी पर सोने, नित्य उपवास, अग्निसेवन, जलप्रवेश तथा भूमिशयन करने से भी शुद्धि नहीं होती है। तत्त्वज्ञान या सत्कर्म से ही जरा, मृत्यु तथा रोगों का नाश होता है और उत्तम पद (मुक्ति) की प्राप्ति होती है। जैसे आग में जले हुए बीज फिर नहीं उगते हैं, उसी प्रकार ज्ञान के द्वारा अविद्या आदि क्लेशों के नष्ट हो जाने पर आत्मा का पुन: उनसे संयोग नहीं होता। जीवात्मा से परित्यक्त होने पर सारे शरीर काठ और दीवार की भाँति जड़वत् होकर महासागर में उठे हुए फेनों की तरह नष्ट हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है। एक या आधे श्लोक से भी यदि सम्पूर्ण भूतों के हृदयदेश में शयन करने वाले परमात्मा का ज्ञान हो जाये, तो उसके लिये सम्पूर्ण शास्त्रों के अध्ययन का प्रयोजन समाप्त हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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