"महाभारत वन पर्व अध्याय 189 श्लोक 1-24" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: एकोननवत्यधिकशततम अध्‍याय:  श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद</div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: एकोननवत्यधिकशततम अध्‍याय:  श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद<br />
  
'''भगवान् बालमुकुन्दका मार्कण्डेयको अपने स्वरूपका परिचय देना तथा मार्कण्डेयद्वारा श्रीकृष्णकी महिमाका प्रतिपादन और पाण्डवोंका श्रीकृष्णकी शरणमें जाना'''
 
  
भगवान् बोले-विप्रवर! देवता भी मेरे स्वरूपको यथेष्ट और यथार्थस्वरूपसे नहीं जानते। मैं जिस प्रकार इस जगत् की रचना करता हूं, वह तुम्हारे प्रेमके कारण तुम्हें बताउंगा। ब्रह्मर्षें! तुम पितृभक्त हो, मेरी शरणमें आये हो और तुमने महान् ब्रह्माचर्य का पालन किया हैं। इन्हीं सब कारणोंसे तुम्हें मेरे साक्षात् स्वरूपका दर्शन हुआ। पूर्वकालमें मैंने ही जलका 'नारा' नाम रखा था। वह 'नारा' मेरा सदा अयन
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;भगवान् बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना तथा मार्कण्डेय द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का प्रतिपादन और पाण्डवों का श्रीकृष्ण की शरण में जाना</div>
(वासस्थान) हैं, इसलिये मैं 'नारायण' नामसे विख्यात हूँ। मैं नारायण ही सबकी उत्पत्तिका कारण, सनातन और अविनाशी हूँ। द्विजश्रेष्ठ! सम्पूर्ण भूतोंकी सृष्टि और संहार करने वाला भी मैं ही हूँ। मैं ही विष्णु हूं, मैं ही ब्रह्मा हूं, मैं ही देवराज इन्द्र हूँ और मैं ही राजा कुबेर तथा प्रेतराज यम हूँ। विप्रवर! मैं ही शिव, चन्द्रमा, प्रजापति कश्यप, धाता, विधाता और यज्ञ हूँ। अग्नि मेरा मुख हैं, पृथ्वी चरण हैं, चन्द्रमा और सूर्य नेत्र हैं। द्युलोक मेरा मस्तक हैं। आकाश और दिशाएं मेरे कान हैं तथा जल मेरे शरीरके पसीनेसे प्रकट हुआ है। दिशाओंसहित आकाश मेरा शरीर है। वायु मेरे मनमें स्थित है। मैने पर्याप्त दक्षिणाओंसे युक्त अनेक शत यज्ञोंद्वारा यजन किया हैं।
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वेदवेत्ता ब्राह्मण देवयज्ञमें स्थित मुझ यज्ञपुरुषका यजन करते हैं। पृथ्वीका पालन करने वाले क्षत्रियनरेश स्वर्गप्राप्ति की अभिलाषा से इस भूतलपर यज्ञोंद्वारा मेरा यजन करते हैं। इसी प्रकार वैश्य भी स्वर्गलोकपर विजय पानेकी इच्छासे मेरी सेवा-पूजा करते हैं। मैं ही शेषनाग होकर मेरूमन्दरसे विभूषित तथा चारों समुद्रोंसे घिरी हुई इस वसुन्धराको अपने सिरपर धारण करता हूँ। विप्रवर! पूर्वकालमें जब यह पृथ्वी जलमें डूब गयी थी, उस समय मैंने ही वाराहरूप धारण करके इसे बलपूर्वक जलसे बाहर निकाला था। विद्वन्! मैं ही बड़वामुख अग्नि होकर सदा समुद्रके जलको पीता हूँ और फिर उस जलको बरसा देता हूँ। ब्राह्मण मेरा मुख हैं, क्षत्रिय दोनों भुजाएं हैं और वैश्य मेरी दोनों जांघोंके रूपमें स्थित हैं। ये शूद्र मेरे दोनों चरण हैं। मेरी शक्तिसे क्रमशः इनका प्रादूर्भाव हुआ हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद-ये मुझसे ही प्रकट होते और मुझसे ही लीन हो जाते हैं।  
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भगवान् बोले- विप्रवर! [[देवता]] भी मेरे स्वरूप को यथेष्ट और यथार्थरूप से नहीं जानते। मैं जिस प्रकार इस जगत् की रचना करता हूं, वह तुम्हारे प्रेम के कारण तुम्हें बताऊँगा। ब्रह्मर्षें! तुम पितृभक्त हो, मेरी शरण में आये हो और तुमने महान् ब्रह्मचर्य का पालन किया है। इन्हीं सब कारणों से तुम्हें मेरे साक्षात् स्वरूप का दर्शन हुआ। पूर्वकाल में मैंने ही जल का 'नारा' नाम रखा था। वह 'नारा' मेरा सदा अयन (वासस्थान) है, इसलिये मैं 'नारायण' नाम से विख्यात हूँ। मैं नारायण ही सबकी उत्पत्ति का कारण, सनातन और अविनाशी हूँ। द्विजश्रेष्ठ! सम्पूर्ण भूतों की सृष्टि और संहार करने वाला भी मैं ही हूँ। मैं ही [[विष्णु]] हूं, मैं ही [[ब्रह्मा]] हूं, मैं ही [[इन्द्र|देवराज इन्द्र]] हूँ और मैं ही राजा [[कुबेर]] तथा प्रेतराज [[यमराज|यम]] हूँ। विप्रवर! मैं ही [[शिव]], चन्द्रमा, प्रजापति कश्यप, धाता, विधाता और [[यज्ञ]] हूँ। अग्नि मेरा मुख है, पृथ्वी चरण है, चन्द्रमा और सूर्य नेत्र हैं। द्युलोक मेरा मस्तक है। आकाश और दिशाएं मेरे कान हैं तथा जल मेरे शरीर के पसीने से प्रकट हुआ है। दिशाओं सहित आकाश मेरा शरीर है। वायु मेरे मन में स्थित है। मैने पर्याप्त दक्षिणाओं से युक्त अनेक शतयज्ञों द्वारा यजन किया है।
  
शान्तिपरायण, संयमी, जिज्ञासु, काम-क्रोध-द्वेषरहित आसक्तिशून्य, निष्पाप, सात्त्विक, नित्य अहंकारशून्य तथा अध्यात्मज्ञानकुशल यति एवं ब्राह्मण सदा मेरा ही चिन्तन करते हुए उपासना करते हैं। मैं ही संवर्तक ( प्रलयका कारण ) वहि हूँ। मैं ही संवर्तक अनल हूँ। मैं ही संवर्तक सूर्य हूँ और मैं ही संवर्तक वायु हूँ। द्विजश्रेष्ठ! आकाशमें जो ये दिखायी देते हैं, उन सबको मेरे ही रोमकूप समझो। रत्नाकर समुद्र और चारों दिशाओंको मेरे वस्त्र, शया और निवासस्थान जानो। मैंने ही देवताओंके कार्यकी सिद्धिके लिये इनकी पृथक्-पृथक् रचना की है। साधुशिरोमणे! काम, क्रोध, हर्ष, भय और मोह-इन सभी विकारोंको मेरी ही रोमावली समझो। ब्रह्मन्! जिन शुभ कर्मोंके आचरणसे मनुष्यकोकल्यणकी प्राप्ति होती हैं, वे सत्य, दान, उग्र तपस्या और किसी भी प्राणीकी हिंसा न करनेका स्वभाव-ये सब मेरे ही विधानसे निर्मित हुए हैं और मेरे ही शरीरमें विहार करते हैं। मैं समस्त प्राणियों के ज्ञानको जब प्रकट कर देता हूं, तभी वे चेष्टाशील होते हैं, अन्यथा अपनी इच्छासे वे कुछ नहीं कर सकते। जो द्विजाति अच्छी तरह वेदोंका अध्ययन करके शांतचित और क्रोधशून्य होकर नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा मेरी आराधना करते हैं, उन्हें ही मेरी प्राप्ति होती हैं।
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वेदवेत्ता ब्राह्मण देवयज्ञ में स्थित मुझ यज्ञपुरुष का यजन करते हैं। पृथ्वी का पालन करने वाले क्षत्रिय नरेश स्वर्ग प्राप्ति की अभिलाषा से इस भूतल पर यज्ञों द्वारा मेरा यजन करते हैं। इसी प्रकार वैश्य भी स्वर्गलोक पर विजय पाने की इच्छा से मेरी सेवा-पूजा करते हैं। मैं ही शेषनाग होकर मेरुमन्दर से विभूषित तथा चारों समुद्रों से घिरी हुई इस वसुन्धरा को अपने सिर पर धारण करता हूँ। विप्रवर! पूर्वकाल में जब यह पृथ्वी जल में डूब गयी थी, उस समय मैंने ही वराह रूप धारण करके इसे बलपूर्वक जल से बाहर निकाला था। विद्वन्! मैं ही बड़वामुख अग्नि होकर सदा समुद्र के जल को पीता हूँ और फिर उस जल को बरसा देता हूँ। ब्राह्मण मेरा मुख है, क्षत्रिय दोनों भुजाएं हैं और वैश्य मेरी दोनों जांघों के रूप में स्थित हैं। ये शूद्र मेरे दोनों चरण हैं। मेरी शक्ति से क्रमशः इनका प्रादुर्भाव हुआ है। [[ऋग्वेद]], [[यजुर्वेद]], [[सामवेद]] और [[अथर्ववेद]] -ये मुझसे ही प्रकट होते और मुझसे ही लीन हो जाते हैं।  
  
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शान्तिपरायण, संयमी, जिज्ञासु, काम-क्रोध-द्वेषरहित आसक्तिशून्य, निष्पाप, सात्त्विक, नित्य अहंकारशून्य तथा अध्यात्म ज्ञानकुशल यति एवं ब्राह्मण सदा मेरा ही चिन्तन करते हुए उपासना करते हैं। मैं ही संवर्तक (प्रलय का कारण) वह्नि हूँ। मैं ही संवर्तक अनल हूँ। मैं ही संवर्तक सूर्य हूँ और मैं ही संवर्तक वायु हूँ। द्विजश्रेष्ठ! आकाश में जो ये तारे दिखायी देते हैं, उन सबको मेरे ही रोमकूप समझो। रत्नाकर समुद्र और चारों दिशाओं को मेरे वस्त्र, शय्या और निवासस्थान जानो। मैंने ही देवताओं के कार्य की सिद्धि के लिये इनकी पृथक्-पृथक् रचना की है। साधुशिरोमणे! काम, क्रोध, हर्ष, भय और मोह-इन सभी विकारों को मेरी ही रोमावली समझो। ब्रह्मन्! जिन शुभ कर्मों के आचरण से मनुष्य को कल्याण की प्राप्ति होती है, वे सत्य, दान, उग्र तपस्या और किसी भी प्राणी की हिंसा न करने का स्वभाव-ये सब मेरे ही विधान से निर्मित हुए हैं और मेरे ही शरीर में विहार करते हैं। मैं समस्त प्राणियों के ज्ञान को जब प्रकट कर देता हूं, तभी वे चेष्टाशील होते हैं, अन्यथा अपनी इच्छा से वे कुछ नहीं कर सकते। जो द्विजाति अच्छी तरह [[वेद|वेदों]] का अध्ययन करके शांतचित्त और क्रोधशून्य होकर नाना प्रकार के [[यज्ञ|यज्ञों]] द्वारा मेरी आराधना करते हैं, उन्हें ही मेरी प्राप्ति होती है।
 
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12:37, 24 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण

एकोननवत्यधिकशततम (189) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकोननवत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद


भगवान् बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना तथा मार्कण्डेय द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का प्रतिपादन और पाण्डवों का श्रीकृष्ण की शरण में जाना

भगवान् बोले- विप्रवर! देवता भी मेरे स्वरूप को यथेष्ट और यथार्थरूप से नहीं जानते। मैं जिस प्रकार इस जगत् की रचना करता हूं, वह तुम्हारे प्रेम के कारण तुम्हें बताऊँगा। ब्रह्मर्षें! तुम पितृभक्त हो, मेरी शरण में आये हो और तुमने महान् ब्रह्मचर्य का पालन किया है। इन्हीं सब कारणों से तुम्हें मेरे साक्षात् स्वरूप का दर्शन हुआ। पूर्वकाल में मैंने ही जल का 'नारा' नाम रखा था। वह 'नारा' मेरा सदा अयन (वासस्थान) है, इसलिये मैं 'नारायण' नाम से विख्यात हूँ। मैं नारायण ही सबकी उत्पत्ति का कारण, सनातन और अविनाशी हूँ। द्विजश्रेष्ठ! सम्पूर्ण भूतों की सृष्टि और संहार करने वाला भी मैं ही हूँ। मैं ही विष्णु हूं, मैं ही ब्रह्मा हूं, मैं ही देवराज इन्द्र हूँ और मैं ही राजा कुबेर तथा प्रेतराज यम हूँ। विप्रवर! मैं ही शिव, चन्द्रमा, प्रजापति कश्यप, धाता, विधाता और यज्ञ हूँ। अग्नि मेरा मुख है, पृथ्वी चरण है, चन्द्रमा और सूर्य नेत्र हैं। द्युलोक मेरा मस्तक है। आकाश और दिशाएं मेरे कान हैं तथा जल मेरे शरीर के पसीने से प्रकट हुआ है। दिशाओं सहित आकाश मेरा शरीर है। वायु मेरे मन में स्थित है। मैने पर्याप्त दक्षिणाओं से युक्त अनेक शतयज्ञों द्वारा यजन किया है।

वेदवेत्ता ब्राह्मण देवयज्ञ में स्थित मुझ यज्ञपुरुष का यजन करते हैं। पृथ्वी का पालन करने वाले क्षत्रिय नरेश स्वर्ग प्राप्ति की अभिलाषा से इस भूतल पर यज्ञों द्वारा मेरा यजन करते हैं। इसी प्रकार वैश्य भी स्वर्गलोक पर विजय पाने की इच्छा से मेरी सेवा-पूजा करते हैं। मैं ही शेषनाग होकर मेरुमन्दर से विभूषित तथा चारों समुद्रों से घिरी हुई इस वसुन्धरा को अपने सिर पर धारण करता हूँ। विप्रवर! पूर्वकाल में जब यह पृथ्वी जल में डूब गयी थी, उस समय मैंने ही वराह रूप धारण करके इसे बलपूर्वक जल से बाहर निकाला था। विद्वन्! मैं ही बड़वामुख अग्नि होकर सदा समुद्र के जल को पीता हूँ और फिर उस जल को बरसा देता हूँ। ब्राह्मण मेरा मुख है, क्षत्रिय दोनों भुजाएं हैं और वैश्य मेरी दोनों जांघों के रूप में स्थित हैं। ये शूद्र मेरे दोनों चरण हैं। मेरी शक्ति से क्रमशः इनका प्रादुर्भाव हुआ है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद -ये मुझसे ही प्रकट होते और मुझसे ही लीन हो जाते हैं।

शान्तिपरायण, संयमी, जिज्ञासु, काम-क्रोध-द्वेषरहित आसक्तिशून्य, निष्पाप, सात्त्विक, नित्य अहंकारशून्य तथा अध्यात्म ज्ञानकुशल यति एवं ब्राह्मण सदा मेरा ही चिन्तन करते हुए उपासना करते हैं। मैं ही संवर्तक (प्रलय का कारण) वह्नि हूँ। मैं ही संवर्तक अनल हूँ। मैं ही संवर्तक सूर्य हूँ और मैं ही संवर्तक वायु हूँ। द्विजश्रेष्ठ! आकाश में जो ये तारे दिखायी देते हैं, उन सबको मेरे ही रोमकूप समझो। रत्नाकर समुद्र और चारों दिशाओं को मेरे वस्त्र, शय्या और निवासस्थान जानो। मैंने ही देवताओं के कार्य की सिद्धि के लिये इनकी पृथक्-पृथक् रचना की है। साधुशिरोमणे! काम, क्रोध, हर्ष, भय और मोह-इन सभी विकारों को मेरी ही रोमावली समझो। ब्रह्मन्! जिन शुभ कर्मों के आचरण से मनुष्य को कल्याण की प्राप्ति होती है, वे सत्य, दान, उग्र तपस्या और किसी भी प्राणी की हिंसा न करने का स्वभाव-ये सब मेरे ही विधान से निर्मित हुए हैं और मेरे ही शरीर में विहार करते हैं। मैं समस्त प्राणियों के ज्ञान को जब प्रकट कर देता हूं, तभी वे चेष्टाशील होते हैं, अन्यथा अपनी इच्छा से वे कुछ नहीं कर सकते। जो द्विजाति अच्छी तरह वेदों का अध्ययन करके शांतचित्त और क्रोधशून्य होकर नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा मेरी आराधना करते हैं, उन्हें ही मेरी प्राप्ति होती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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