छो (Text replacement - " !" to "! ") |
छो (Text replacement - " ।" to "। ") |
||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
− | ‘पाण्डवो! वरदान, राज्यप्रदान पुत्रकी प्राप्ति कराना तथा शत्रुका संकटसे उद्धार करना-इन चार वस्तुओंमेसे प्रारम्भके तीन और अन्त का एक समान | + | ‘पाण्डवो! वरदान, राज्यप्रदान पुत्रकी प्राप्ति कराना तथा शत्रुका संकटसे उद्धार करना-इन चार वस्तुओंमेसे प्रारम्भके तीन और अन्त का एक समान हैं। ‘तुम्हारे लिये इससे बढ़कर आनन्दकी बात और क्या होगी कि दुर्योधन विपत्तिमें पड़कर तुम्हारे बाहुबलके भरोसे अपने जीवनकी रक्षा करना चाहता है ? |
− | ‘वीर भीमसेन! यदि मेरा यह यज्ञ प्रारम्भ न हो गया होता, तो मैं स्वयं ही दुर्योधनको छुड़ानेके लिये दौड़ा | + | ‘वीर भीमसेन! यदि मेरा यह यज्ञ प्रारम्भ न हो गया होता, तो मैं स्वयं ही दुर्योधनको छुड़ानेके लिये दौड़ा जाता। इस विषय में मेरे लिये कोई दूसरा विचार करना उचित नहीं है। ‘कुरूनन्दन भीम! शान्तिपूर्ण ढंगसे समझा-बुझाकर जिस तरह भी दुर्योधनको छुडा सको, सभी उपायोंसे वैसा ही प्रयत्न करना। ‘यदि समझाने-बुझानेसे वह गन्धर्वराज चित्रसेन तुम्हारी बात न माने, तो कोमलतापूर्ण पराक्रमके द्वारा दुर्योधनको छुडानेकी चेष्टा करना। |
− | ‘भीम! यदि कोमलतापूर्ण युद्धसे भी वह कौरवोंको न छोड़े, तो तुम सभी उपायोंसे उन लुटेरे गन्धर्वोको कैद करके कौरवोंको | + | ‘भीम! यदि कोमलतापूर्ण युद्धसे भी वह कौरवोंको न छोड़े, तो तुम सभी उपायोंसे उन लुटेरे गन्धर्वोको कैद करके कौरवोंको छुड़ाना। ‘भरतनन्दन वृकोदर! इस समय मेरा यह यज्ञकर्म चालू है; अत: ऐसी स्थितिमें मैं तुम्हें इतना ही संदेश दे सकता हूँ’। |
− | वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! अजातशत्रु युधिष्ठिरका उपर्युक्त वचन सुनकर अर्जुनने अपने बड़े भाईकी आज्ञाके अनुसार कौरवोंको छुडानेकी प्रतिज्ञा | + | वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! अजातशत्रु युधिष्ठिरका उपर्युक्त वचन सुनकर अर्जुनने अपने बड़े भाईकी आज्ञाके अनुसार कौरवोंको छुडानेकी प्रतिज्ञा की। |
− | अर्जुन बोले – यदि गन्धर्वलोग समझाने-बुझानेसे कौरवोंको नहीं छोड़ेगे, तो यह पृथ्वी आज गन्धर्वराजका रक्त | + | अर्जुन बोले – यदि गन्धर्वलोग समझाने-बुझानेसे कौरवोंको नहीं छोड़ेगे, तो यह पृथ्वी आज गन्धर्वराजका रक्त पीयेगी। राजन्! सत्यवादी अर्जुनकी वह प्रतिज्ञा सुनकर कौरवोंके जीमें जी आया। |
− | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत घोषयात्रापर्वमें दुर्योधनको छुड़ानेकी आज्ञाविषयक दो सौ तैंतालीसवां अध्याय पूरा | + | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत घोषयात्रापर्वमें दुर्योधनको छुड़ानेकी आज्ञाविषयक दो सौ तैंतालीसवां अध्याय पूरा हुआ। </div> |
| style="vertical-align:bottom;"| | | style="vertical-align:bottom;"| |
01:58, 22 नवम्बर 2016 का अवतरण
त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततम (243) अध्याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद
‘पाण्डवो! वरदान, राज्यप्रदान पुत्रकी प्राप्ति कराना तथा शत्रुका संकटसे उद्धार करना-इन चार वस्तुओंमेसे प्रारम्भके तीन और अन्त का एक समान हैं। ‘तुम्हारे लिये इससे बढ़कर आनन्दकी बात और क्या होगी कि दुर्योधन विपत्तिमें पड़कर तुम्हारे बाहुबलके भरोसे अपने जीवनकी रक्षा करना चाहता है ? ‘वीर भीमसेन! यदि मेरा यह यज्ञ प्रारम्भ न हो गया होता, तो मैं स्वयं ही दुर्योधनको छुड़ानेके लिये दौड़ा जाता। इस विषय में मेरे लिये कोई दूसरा विचार करना उचित नहीं है। ‘कुरूनन्दन भीम! शान्तिपूर्ण ढंगसे समझा-बुझाकर जिस तरह भी दुर्योधनको छुडा सको, सभी उपायोंसे वैसा ही प्रयत्न करना। ‘यदि समझाने-बुझानेसे वह गन्धर्वराज चित्रसेन तुम्हारी बात न माने, तो कोमलतापूर्ण पराक्रमके द्वारा दुर्योधनको छुडानेकी चेष्टा करना। ‘भीम! यदि कोमलतापूर्ण युद्धसे भी वह कौरवोंको न छोड़े, तो तुम सभी उपायोंसे उन लुटेरे गन्धर्वोको कैद करके कौरवोंको छुड़ाना। ‘भरतनन्दन वृकोदर! इस समय मेरा यह यज्ञकर्म चालू है; अत: ऐसी स्थितिमें मैं तुम्हें इतना ही संदेश दे सकता हूँ’। वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! अजातशत्रु युधिष्ठिरका उपर्युक्त वचन सुनकर अर्जुनने अपने बड़े भाईकी आज्ञाके अनुसार कौरवोंको छुडानेकी प्रतिज्ञा की। अर्जुन बोले – यदि गन्धर्वलोग समझाने-बुझानेसे कौरवोंको नहीं छोड़ेगे, तो यह पृथ्वी आज गन्धर्वराजका रक्त पीयेगी। राजन्! सत्यवादी अर्जुनकी वह प्रतिज्ञा सुनकर कौरवोंके जीमें जी आया। इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत घोषयात्रापर्वमें दुर्योधनको छुड़ानेकी आज्ञाविषयक दो सौ तैंतालीसवां अध्याय पूरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज