सपना वर्मा (वार्ता | योगदान) |
|||
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 7 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | <div class=" | + | <div class="bgmbdiv"> |
− | <h4 style="text-align:center">एकोनविंश (19) अध्याय: विराट पर्व | + | <h4 style="text-align:center">एकोनविंश (19) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)</h4> |
{| width=100% cellspacing="10" style="background:transparent; text-align:justify;" | {| width=100% cellspacing="10" style="background:transparent; text-align:justify;" | ||
|- | |- | ||
− | | | + | | style="vertical-align:bottom;"| |
[[चित्र:Prev.png|link=महाभारत विराट पर्व अध्याय 19 श्लोक 32-43|]] | [[चित्र:Prev.png|link=महाभारत विराट पर्व अध्याय 19 श्लोक 32-43|]] | ||
| | | | ||
− | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: विराट पर्व एकोनविंश अध्यायः श्लोक 44-47 | + | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: विराट पर्व एकोनविंश अध्यायः श्लोक 44-47 का हिन्दी अनुवाद</div> |
− | मैंने शोभासम्पन्न, तेजस्वी तथा उत्तम रूप वाले नकुल को अपनी आँखों देखा है। वह | + | मैंने शोभासम्पन्न, तेजस्वी तथा उत्तम रूप वाले [[नकुल]] को अपनी आँखों देखा है। वह मत्स्य नरेश [[विराट]] को भाँति-भाँति के घोड़े दिखाता और उनकी सेवा में खड़ा रहता है। |
− | + | कुन्तीनन्दन! शत्रुदमन! क्या तुम समझते हो, यह सब देखकर मैं सुखी हूँ? राजा [[युधिष्ठिर]] के कारण ऐसे सैकड़ों दुःख मुझे सदा घेरे रहते हैं। | |
− | भारत ! कुन्तीकुमार ! इनमें भी भारी दूसरे दुःख मुझ पर आ पड़े हैं, उनका भी वर्णन करती हूँ, सुनो। तुम सबके जीते-जी नाना प्रकार के कष्ट मेरे शरीर को सुखा रहे हैं, इससे बढ़कर दुःख और क्या हो सकता है ? | + | भारत! कुन्तीकुमार! इनमें भी भारी दूसरे दुःख मुझ पर आ पड़े हैं, उनका भी वर्णन करती हूँ, सुनो। तुम सबके जीते-जी नाना प्रकार के कष्ट मेरे शरीर को सुखा रहे हैं, इससे बढ़कर दुःख और क्या हो सकता है? |
− | |||
− | |||
− | + | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत कीचकवधपर्व में द्रौपदी-भीमसेन संवाद विषयक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> | |
− | | | + | | style="vertical-align:bottom;"| |
− | [[चित्र:Next.png| | + | [[चित्र:Next.png|link=महाभारत विराट पर्व अध्याय 20 श्लोक 1-15|]] |
|} | |} | ||
</div> | </div> |
12:59, 31 मार्च 2018 के समय का अवतरण
एकोनविंश (19) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)
महाभारत: विराट पर्व एकोनविंश अध्यायः श्लोक 44-47 का हिन्दी अनुवाद
कुन्तीनन्दन! शत्रुदमन! क्या तुम समझते हो, यह सब देखकर मैं सुखी हूँ? राजा युधिष्ठिर के कारण ऐसे सैकड़ों दुःख मुझे सदा घेरे रहते हैं। भारत! कुन्तीकुमार! इनमें भी भारी दूसरे दुःख मुझ पर आ पड़े हैं, उनका भी वर्णन करती हूँ, सुनो। तुम सबके जीते-जी नाना प्रकार के कष्ट मेरे शरीर को सुखा रहे हैं, इससे बढ़कर दुःख और क्या हो सकता है?
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत कीचकवधपर्व में द्रौपदी-भीमसेन संवाद विषयक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज