"महाभारत विराट पर्व अध्याय 15 श्लोक 17-21" के अवतरणों में अंतर

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<h4 style="text-align:center">पन्चदशम (15) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)</h4>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: विराट पर्व: पन्चदशम अध्यायः श्लोक 17-21 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: विराट पर्व: पन्चदशम अध्यायः श्लोक 17-21  का हिन्दी अनुवाद</div>
 
 
द्रापदी मदिरा लाने के लिये उस पात्र को लेकर शंकित हो रोती हुई कीचक के घर की ओर चली  और अपने सतीत्व की रक्षा के लिये मन-ही-मन भगवान  सूर्य की शरण में गयी।
 
  
सैरन्ध्री ने कहा- भगवन् ! यदि मैं अपने पतियों के सिवा किसी दूसरे पुरुष को मन में नहीं लाती, तो इस सत्य के प्रभाव से कीचक अपने घर में आयी हुई मुझ अबला को अपने वश में न कर सके।
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[[द्रौपदी]] मदिरा लाने के लिये उस पात्र को लेकर शंकित हो रोती हुई [[कीचक]] के घर की ओर चली और अपने सतीत्व की रक्षा के लिये मन-ही-मन भगवान सूर्य की शरण में गयी।
  
वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! सब प्रकार के बल से रहित द्रौपदी दा घड़ी तक भगवान  सूर्य की उपासना करती रही। तदनन्तर श्रीसूर्यदेव ने पतले कटिभागवाली द्रुपदकुमारी की सारी परिस्थिति समण् ली और उसकी रक्षा के लिये अदृश्य रूप से एक राक्षस को नियुक्त कर दिया। वह राक्षस किसी भी अवस्था में सती साध्वी द्रौपदी को वहाँ असहाय नहीं छोड़ता था।
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सैरन्ध्री ने कहा- भगवन्! यदि मैं अपने पतियों के सिवा किसी दूसरे पुरुष को मन में नहीं लाती, तो इस सत्य के प्रभाव से कीचक अपने घर में आयी हुई मुझ अबला को अपने वश में न कर सके।
  
डरी हुई हरिणी की भाँति भयभीत द्रौपदी को समीप आयी देख सूत कीचक आननद में भरकर खडत्रा हो गया; मानो नदी के पास जाने वाला पथिक नौका पाकर प्रसन्न हो गया हो।
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत कीचकवधपर्व में द्रौपदी के द्वारा मदिरानयन सम्बन्धी पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
  
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11:33, 29 मार्च 2018 के समय का अवतरण

पन्चदशम (15) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: पन्चदशम अध्यायः श्लोक 17-21 का हिन्दी अनुवाद


द्रौपदी मदिरा लाने के लिये उस पात्र को लेकर शंकित हो रोती हुई कीचक के घर की ओर चली और अपने सतीत्व की रक्षा के लिये मन-ही-मन भगवान सूर्य की शरण में गयी।

सैरन्ध्री ने कहा- भगवन्! यदि मैं अपने पतियों के सिवा किसी दूसरे पुरुष को मन में नहीं लाती, तो इस सत्य के प्रभाव से कीचक अपने घर में आयी हुई मुझ अबला को अपने वश में न कर सके।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! सब प्रकार के बल से रहित द्रौपदी दो घड़ी तक भगवान सूर्य की उपासना करती रही। तदनन्तर श्रीसूर्यदेव ने पतले कटि भाग वाली द्रुपदकुमारी की सारी परिस्थिति समझ ली और उसकी रक्षा के लिये अदृश्य रूप से एक राक्षस को नियुक्त कर दिया। वह राक्षस किसी भी अवस्था में सती साध्वी द्रौपदी को वहाँ असहाय नहीं छोड़ता था।

डरी हुई हरिणी की भाँति भयभीत द्रौपदी को समीप आयी देख सूत कीचक आननद में भरकर खड़ा हो गया; मानो नदी के पास जाने वाला पथिक नौका पाकर प्रसन्न हो गया हो।


इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत कीचकवधपर्व में द्रौपदी के द्वारा मदिरानयन सम्बन्धी पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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