"महाभारत वन पर्व अध्याय 277 श्लोक 1-18" के अवतरणों में अंतर

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==सप्तसप्तत्यधिकद्वशततम (277) अध्‍याय: वन पर्व (रामोख्यान पर्व)==
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: सप्तसप्तत्यधिकद्वशततमोऽध्यायः  श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद</div>
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<h4 style="text-align:center">सप्तसप्तत्यधिकद्वशततम (277) अध्‍याय: वन पर्व (रामोपाख्‍यान पर्व)</h4>
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[[चित्र:Prev.png|link=महाभारत वन पर्व अध्याय 276 श्लोक 1-16]]
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: सप्तसप्तत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद<br />
  
  
श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी, रामवनगमन, भरत की चित्रकूट यात्रा, राम के द्वारा खर-दूषण आदि राक्षसों का नाश तथा रावण का मारीच के पास जाना
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;श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी, रामवनगमन, भरत की चित्रकूटयात्रा, राम के द्वारा खर-दूषण आदि राक्षसों का नाश तथा रावण का मारीच के पास जाना</div>
युधिष्ठिर ने पूछा - ब्रह्मन् ! आपने श्रीरामचन्द्रजी आदि सभी भाइयों के जन्म की कथा जो पृथक्-पृथक् सुना इी, अब मैं वनवास का कारण सुनना चाहता हूँ; उसे कहिये। इशरथजी के वीर पुत्र दोनों भाई श्रीरा और लक्ष्मण तथा मिथिलेश कुमारी सीता को वन में क्यों जाना पड़ा ? मार्कण्डेयजी ने कहा - राजन् ! अपने पुत्रों के जनम से महाराज दशरथ को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे सदा सत्यकर्म में तत्पर रहने वाले तथा बडे-बूढ़ों के सेवक थे। राजा के महातेजस्वी पुत्र क्रमशः बढ़ने लगे। उन्होंने (उपनयन के पश्चात्) विधिवत् ब्रह्मचर्य का पालन किया और वेदों तथा रहस्य सहित धनुर्वेद के वे पारंगत विद्वान् हुए। समयानुसार जब उनका कववाह हो गया, तब राजा रशरथ बड़े प्रसन्न तथा सुखी हुए। चारों पुत्रों में बुद्धिमान श्रीराम सबसे बड़े थे। वे अपने मनोहर रूप और सुन्दर स्वभाव से समस्त प्रजा को आनन्दित करते थे- सबका मन उन्हीं में रमता था। इसके सिवा वे पिता के मन में भी आननद बढ़ाने वाले थे। यधिष्ठिर ! राजा दशरथ बड़े बुद्धिमान थे। उन्होंने यह सोचकर कि अब मेरी अवस्था बहुत अधिक हो गयी; अतः श्रीरा को युवराजपद पर अभिषिक्त कर देना चाहिये; इस विषय में अपने मन्त्री और धर्मज्ञ पुरोहितों से राय ली। उन सभी श्रेष्ठ मन्त्रियों ने राजा के दस समयोचित प्रस्ताव का अनुमोदन किया। श्रीरामचन्द्रजी के सुन्दर नेत्र कुछ-कुछलाल थे और भुजाएँ बड़ी एवं घुटनों तब लंबी थी। वे मतवाले हाथी के समान मस्तानी चाल से चलते थे। उनकी ग्रीवा शंख के समान सुन्दर थी, उनकी छाती चैड़ी थी और उनके सिर पर काले-काले घुँघराले बाल थे। उनकी देह दिव्य दीप्ति से दमकती रहती थी। युद्ध में उनका पराक्रम देवराज इन्द्र से कम नहीं था। वे समस्त धर्मों के पारंगत विद्वान् और बृस्पिति के समान बुद्धिमान थे। सम्पूर्ण प्रजा का उनमें अनुराग था। वे सभी विद्याओं में प्रवीण तथा जितेन्द्रिय थे। उनका अद्भुत रूप देखकर शत्रुओं के भी नेत्र और मन लुभा जाते थे। वे दुष्टों का दमन करने में समर्थ, साधुओं के संरक्षक, धर्मात्मा, धैर्यवान्, दुर्धर्ष, विजयी तथा किसी से भी परास्त न होने वाले थे। कुरुनन्दन ! कौसल्या का आनन्द
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बढ़ाने वाले अपने पुत्र श्रीराम को देख-देखकर राजा दशरथ को बड़ी प्रसन्नता होती थी। राजन् ! तुम्हारा भला हो। महातेजस्वी तथा परम पराक्रमी राजा दशरथ श्रीरामचन्द्रजी के गुणों का स्मरण करते हुए बड़ी प्रसन्नता के साथ पुरोहित से बोले - ‘ब्रह्मन् ! आज पुष्य नक्षत्र है। आप राज्याभिषेक की सामग्री तैयार कीजिये और श्रीराम को भी इसकी सूचना दे दीजिये’। राजा की यह बात मन्थरा ने सुन ली। वह ठीक समय पर कैकेयी के पास जाकर यों बोली।-  ‘केकयनन्दिनि ! आज राजा ने तुम्हारे लिये महान् दुर्भाग्य की घोषणा की है। खोटे भाग्य वाली रानी ! इससे अच्छा तो यह होता कि तुम्हें क्रोध में भरा हुआ प्रचण्ड विषधर सर्प डँस लेता। ‘रानी कौसल्या का भाग्य अवश्य अच्छा है, जिनके पुत्र का राज्याभिषेक होगा। तुम्हारा ऐसा सौभाग्य वहाँ ? जिसका पुत्र राज्य का अधिकारी ही नहीं है’।
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[[युधिष्ठिर]] ने पूछा- ब्रह्मन्! आपने [[राम|श्रीरामचन्द्र जी]] आदि सभी भाइयों के जन्म की कथा तो पृथक्-पृथक् सुना दी, अब मैं वनवास का कारण सुनना चाहता हूँ; उसे कहिये। [[दशरथ|दशरथ जी]] के वीर पुत्र दोनों भाई श्रीराम और [[लक्ष्मण]] तथा [[सीता|मिथिलेशकुमारी सीता]] को वन में क्यों जाना पड़ा?
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[[युधिष्ठिर]]! राजा दशरथ बड़े बुद्धिमान थे। उन्होंने यह सोचकर कि अब मेरी अवस्था बहुत अधिक हो गयी; अतः श्रीराम को युवराज पद पर अभिषिक्त कर देना चाहिये; इस विषय में अपने मन्त्री और धर्मज्ञ पुरोहितों से राय ली। उन सभी श्रेष्ठ मन्त्रियों ने राजा के दस समयोचित प्रस्ताव का अनुमोदन किया। श्रीरामचन्द्र जी के सुन्दर नेत्र कुछ-कुछ लाल थे और भुजाएँ बड़ी एवं घुटनों तक लंबी थी। वे मतवाले हाथी के समान मस्तानी चाल से चलते थे। उनकी ग्रीवा शंख के समान सुन्दर थी, उनकी छाती चौड़ी थी और उनके सिर पर काले-काले घुँघराले बाल थे। उनकी देह दिव्यदीप्ति से दमकती रहती थी। युद्ध में उनका पराक्रम देवराज इन्द्र से कम नहीं था। वे समस्त धर्मों के पारंगत विद्वान् और बृहस्पति के समान बुद्धिमान थे। सम्पूर्ण प्रजा का उनमें अनुराग था। वे सभी विद्याओं में प्रवीण तथा जितेन्द्रिय थे। उनका अद्भुत रूप देखकर शत्रुओं के भी नेत्र और मन लुभा जाते थे। वे दुष्टों का दमन करने में समर्थ, साधुओं के संरक्षक, धर्मात्मा, धैर्यवान्, दुर्धर्ष, विजयी तथा किसी से भी परास्त न होने वाले थे।
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कुरुनन्दन! कौसल्या का आनन्द बढ़ाने वाले अपने पुत्र श्रीराम को देख-देखकर [[दशरथ|राजा दशरथ]] को बड़ी प्रसन्नता होती थी। राजन्! तुम्हारा भला हो। महातेजस्वी तथा परम पराक्रमी राजा दशरथ श्रीरामचन्द्र जी के गुणों का स्मरण करते हुए बड़ी प्रसन्नता के साथ पुरोहित से बोले- ‘ब्रह्मन्! आज पुष्य नक्षत्र है। आप राज्याभिषेक की सामग्री तैयार कीजिये और श्रीराम को भी इसकी सूचना दे दीजिये’। राजा की यह बात मन्थरा ने सुन ली। वह ठीक समय पर [[कैकेयी]] के पास जाकर यों बोली- ‘केकयनन्दिनि! आज राजा ने तुम्हारे लिये महान् दुर्भाग्य की घोषणा की है। खोटे भाग्य वाली रानी! इससे अच्छा तो यह होता कि तुम्हें क्रोध में भरा हुआ प्रचण्ड विषधर सर्प डँस लेता। रानी कौसल्या का भाग्य अवश्य अच्छा है, जिनके पुत्र का राज्याभिषेक होगा। तुम्हारा ऐसा सौभाग्य कहाँ? जिसका पुत्र राज्य का अधिकारी ही नहीं है’।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

12:58, 18 मार्च 2018 के समय का अवतरण

सप्तसप्तत्यधिकद्वशततम (277) अध्‍याय: वन पर्व (रामोपाख्‍यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: सप्तसप्तत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी, रामवनगमन, भरत की चित्रकूटयात्रा, राम के द्वारा खर-दूषण आदि राक्षसों का नाश तथा रावण का मारीच के पास जाना

युधिष्ठिर ने पूछा- ब्रह्मन्! आपने श्रीरामचन्द्र जी आदि सभी भाइयों के जन्म की कथा तो पृथक्-पृथक् सुना दी, अब मैं वनवास का कारण सुनना चाहता हूँ; उसे कहिये। दशरथ जी के वीर पुत्र दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण तथा मिथिलेशकुमारी सीता को वन में क्यों जाना पड़ा?

मार्कण्डेय जी ने कहा- राजन्! अपने पुत्रों के जन्म से महाराज दशरथ को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे सदा सत्यकर्म में तत्पर रहने वाले तथा बडे-बूढ़ों के सेवक थे। राजा के महातेजस्वी पुत्र क्रमशः बढ़ने लगे। उन्होंने (उपनयन के पश्चात्) विधिवत् ब्रह्मचर्य का पालन किया और वेदों तथा रहस्य सहित धनुर्वेद के वे पारंगत विद्वान् हुए। समयानुसार जब उनका विवाह हो गया, तब राजा रशरथ बड़े प्रसन्न तथा सुखी हुए। चारों पुत्रों में बुद्धिमान श्रीराम सबसे बड़े थे। वे अपने मनोहर रूप और सुन्दर स्वभाव से समस्त प्रजा को आनन्दित करते थे- सबका मन उन्हीं में रमता था। इसके सिवा वे पिता के मन में भी आननद बढ़ाने वाले थे।

युधिष्ठिर! राजा दशरथ बड़े बुद्धिमान थे। उन्होंने यह सोचकर कि अब मेरी अवस्था बहुत अधिक हो गयी; अतः श्रीराम को युवराज पद पर अभिषिक्त कर देना चाहिये; इस विषय में अपने मन्त्री और धर्मज्ञ पुरोहितों से राय ली। उन सभी श्रेष्ठ मन्त्रियों ने राजा के दस समयोचित प्रस्ताव का अनुमोदन किया। श्रीरामचन्द्र जी के सुन्दर नेत्र कुछ-कुछ लाल थे और भुजाएँ बड़ी एवं घुटनों तक लंबी थी। वे मतवाले हाथी के समान मस्तानी चाल से चलते थे। उनकी ग्रीवा शंख के समान सुन्दर थी, उनकी छाती चौड़ी थी और उनके सिर पर काले-काले घुँघराले बाल थे। उनकी देह दिव्यदीप्ति से दमकती रहती थी। युद्ध में उनका पराक्रम देवराज इन्द्र से कम नहीं था। वे समस्त धर्मों के पारंगत विद्वान् और बृहस्पति के समान बुद्धिमान थे। सम्पूर्ण प्रजा का उनमें अनुराग था। वे सभी विद्याओं में प्रवीण तथा जितेन्द्रिय थे। उनका अद्भुत रूप देखकर शत्रुओं के भी नेत्र और मन लुभा जाते थे। वे दुष्टों का दमन करने में समर्थ, साधुओं के संरक्षक, धर्मात्मा, धैर्यवान्, दुर्धर्ष, विजयी तथा किसी से भी परास्त न होने वाले थे।

कुरुनन्दन! कौसल्या का आनन्द बढ़ाने वाले अपने पुत्र श्रीराम को देख-देखकर राजा दशरथ को बड़ी प्रसन्नता होती थी। राजन्! तुम्हारा भला हो। महातेजस्वी तथा परम पराक्रमी राजा दशरथ श्रीरामचन्द्र जी के गुणों का स्मरण करते हुए बड़ी प्रसन्नता के साथ पुरोहित से बोले- ‘ब्रह्मन्! आज पुष्य नक्षत्र है। आप राज्याभिषेक की सामग्री तैयार कीजिये और श्रीराम को भी इसकी सूचना दे दीजिये’। राजा की यह बात मन्थरा ने सुन ली। वह ठीक समय पर कैकेयी के पास जाकर यों बोली- ‘केकयनन्दिनि! आज राजा ने तुम्हारे लिये महान् दुर्भाग्य की घोषणा की है। खोटे भाग्य वाली रानी! इससे अच्छा तो यह होता कि तुम्हें क्रोध में भरा हुआ प्रचण्ड विषधर सर्प डँस लेता। रानी कौसल्या का भाग्य अवश्य अच्छा है, जिनके पुत्र का राज्याभिषेक होगा। तुम्हारा ऐसा सौभाग्य कहाँ? जिसका पुत्र राज्य का अधिकारी ही नहीं है’।

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