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<center>'''पराजित होकर शरण में आये हुए इन्द्र सहित देवताओं को स्कन्द का उभयदान'''</center> | <center>'''पराजित होकर शरण में आये हुए इन्द्र सहित देवताओं को स्कन्द का उभयदान'''</center> | ||
− | मार्कण्डेयजी कहते हैं- | + | मार्कण्डेयजी कहते हैं-राजन्। ग्रह, उपग्रह, ऋषि, मातृकागण और मुख से आग उगलने वाले दर्प युक्त पार्षदगण-ये तथा दूसरे बहुत से भयंकर स्वर्गवासी प्राणी मातृकागणों के साथ रहकर महा सेन को सब ओर से घेरे हुए उनकी रक्षा के लिये खड़े थे। देवेश्वर इन्द्र को अपनी विजय के विषय में संदेह ही दिखायी देता था, तो भी वे विजयी की अभिलाषा से ऐरावत हाथी पर आरुढ़ हो देवताओं के साथ आगे बढ़े। सब देवताओं से घिरे हुए बलवान् इन्द्र महा सेन को मार डालने की इच्छा से हाथ में वज्र ले बड़े वेग से अग्रसर हो रहे थे। देवताओं की सेना बड़ी भयानक थी। उसमें जोर-जोर से विकट गर्जना हो रही थी। उसकी प्रभा का विस्तार महान् था। उसके ध्वज और संनाह ( कवच ) विचित्र थे। सभी सैनिकों के वाहन और धनुष नाना प्रकार के दिखायी देते थे। सब ने श्रेष्ठ वस्त्रों से अपने शरीर को आच्छादित कर रखा था। |
− | सभी लोग श्री सम्पन्न तथा विविध आभूषणों से विभूषित दिखायी देते थे। इन्द्र को अपने वध के लिये आते देख कुमार ने भी उन पर धावा बोल | + | सभी लोग श्री सम्पन्न तथा विविध आभूषणों से विभूषित दिखायी देते थे। इन्द्र को अपने वध के लिये आते देख कुमार ने भी उन पर धावा बोल दिया। युधिष्ठर। महाबली देवराज इन्द्र अग्नि नन्दन स्कन्द को मार डालने की इच्छा से देवताओं की सेना का हर्ष बढ़ाते हुए तीव्र गति से विकट गर्जना के साथ आगे बढ़ रहे थे। उस समय सम्पूर्ण देवता और महर्षि उनका बड़ा सम्मान कर रहे थे। जब देवराज इन्द्र कुमार [[कार्तिकेय]] के निकट पहुंचे, तब उन्होंने देवताओं के साथ सिंह के समान गर्जना की। उनका वह सिंहनाद सुनकर कुमार कार्तिकेय भी समुद्र के समान भयंकर गर्जना करने लगे। देवताओं की सेना उमड़ते हुए समुद्र के समान जान पड़ती थी। |
− | परंतु स्कन्द की भारी गर्जना से अचेत-सी होकर वहीं चक्कर काटने | + | परंतु स्कन्द की भारी गर्जना से अचेत-सी होकर वहीं चक्कर काटने लगी। अग्नि कुमार स्कन्द यह देखकर कि देवता लोग मेरा वध करने की इच्छा से यहां एकत्र हुए हैं, कुपित हो उठे और अपने मुंह से आग की बढ़ती हुई लपटें छोड़ने लगे। इस प्रकार उन्होंने देवताओं की सेना को जलाना प्रारम्भ किया। सारे सैनिक पृथ्वी पर गिरकर छटपटाने लगे। किसी का शरीर जल गया, किसी का सिर, किसी के आयुध जल गये और किसी के वाहन। वे सब के सब सहसा तितर-बितर हो आकाश में बिखरे हुए तारों के समान जान पड़ते थे। इस तरह जलते हुए देवता वज्रधारी इन्द्र का साथ छोड़कर अग्निनन्दन स्कन्द की ही शरण में आये, तब उन्हें शान्ति मिली। देवताओं के त्याग देने पर इन्द्र ने स्कन्द पर अपने वज्र का प्रहार किया। महाराज। इन्द्र के छोड़े हुए उस वज्र ने शीघ्र ही कुमार कार्तिकेय की दायीं पसली पर गहरी चोट पहुंचायी और उन महामना स्कन्द के पाश |
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02:26, 23 नवम्बर 2016 का अवतरण
सप्तविंशत्यधिकद्विशततम (227) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: सप्तविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
मार्कण्डेयजी कहते हैं-राजन्। ग्रह, उपग्रह, ऋषि, मातृकागण और मुख से आग उगलने वाले दर्प युक्त पार्षदगण-ये तथा दूसरे बहुत से भयंकर स्वर्गवासी प्राणी मातृकागणों के साथ रहकर महा सेन को सब ओर से घेरे हुए उनकी रक्षा के लिये खड़े थे। देवेश्वर इन्द्र को अपनी विजय के विषय में संदेह ही दिखायी देता था, तो भी वे विजयी की अभिलाषा से ऐरावत हाथी पर आरुढ़ हो देवताओं के साथ आगे बढ़े। सब देवताओं से घिरे हुए बलवान् इन्द्र महा सेन को मार डालने की इच्छा से हाथ में वज्र ले बड़े वेग से अग्रसर हो रहे थे। देवताओं की सेना बड़ी भयानक थी। उसमें जोर-जोर से विकट गर्जना हो रही थी। उसकी प्रभा का विस्तार महान् था। उसके ध्वज और संनाह ( कवच ) विचित्र थे। सभी सैनिकों के वाहन और धनुष नाना प्रकार के दिखायी देते थे। सब ने श्रेष्ठ वस्त्रों से अपने शरीर को आच्छादित कर रखा था। सभी लोग श्री सम्पन्न तथा विविध आभूषणों से विभूषित दिखायी देते थे। इन्द्र को अपने वध के लिये आते देख कुमार ने भी उन पर धावा बोल दिया। युधिष्ठर। महाबली देवराज इन्द्र अग्नि नन्दन स्कन्द को मार डालने की इच्छा से देवताओं की सेना का हर्ष बढ़ाते हुए तीव्र गति से विकट गर्जना के साथ आगे बढ़ रहे थे। उस समय सम्पूर्ण देवता और महर्षि उनका बड़ा सम्मान कर रहे थे। जब देवराज इन्द्र कुमार कार्तिकेय के निकट पहुंचे, तब उन्होंने देवताओं के साथ सिंह के समान गर्जना की। उनका वह सिंहनाद सुनकर कुमार कार्तिकेय भी समुद्र के समान भयंकर गर्जना करने लगे। देवताओं की सेना उमड़ते हुए समुद्र के समान जान पड़ती थी। परंतु स्कन्द की भारी गर्जना से अचेत-सी होकर वहीं चक्कर काटने लगी। अग्नि कुमार स्कन्द यह देखकर कि देवता लोग मेरा वध करने की इच्छा से यहां एकत्र हुए हैं, कुपित हो उठे और अपने मुंह से आग की बढ़ती हुई लपटें छोड़ने लगे। इस प्रकार उन्होंने देवताओं की सेना को जलाना प्रारम्भ किया। सारे सैनिक पृथ्वी पर गिरकर छटपटाने लगे। किसी का शरीर जल गया, किसी का सिर, किसी के आयुध जल गये और किसी के वाहन। वे सब के सब सहसा तितर-बितर हो आकाश में बिखरे हुए तारों के समान जान पड़ते थे। इस तरह जलते हुए देवता वज्रधारी इन्द्र का साथ छोड़कर अग्निनन्दन स्कन्द की ही शरण में आये, तब उन्हें शान्ति मिली। देवताओं के त्याग देने पर इन्द्र ने स्कन्द पर अपने वज्र का प्रहार किया। महाराज। इन्द्र के छोड़े हुए उस वज्र ने शीघ्र ही कुमार कार्तिकेय की दायीं पसली पर गहरी चोट पहुंचायी और उन महामना स्कन्द के पाश |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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