"महाभारत विराट पर्व अध्याय 16 श्लोक 1-13" के अवतरणों में अंतर

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षोडश (16) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: षोडश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

कीचक द्वारा द्रौपदी का अपमान

कीचक ने कहा- सुन्दर अलकोंवाली सैरन्ध्री ! तुम्हारा स्वागत है। आज की रात का प्रभात मेरे लिये बड़ा मंगलमय है। अब तुम मेरी स्वामिनी होकर मेरा प्रिय कार्य करो। मैं दासियों को आज्ञा देता हूँ; वे तुम्हारे लिये सोने के हार, शंख की चूडि़याँ, विभिन्न नगरों में बने हुए शुभ्र सुवर्णमय कर्णफूल के जोडत्रे, सुन्दर मणि-रत्नमय आभूषण, रेशमी साडि़याँ तथा मृगचर्म आदि ले आवें।

द्रौपदी बोली- दुर्बुद्धे ! जैसे निषद ब्राह्मणी का स्पर्श नहीं कर सकता, उसी प्रकार तुम भी मुण् छू नहीं सकते। तुम मेरा तिरस्कार करके भारी से भारी दुर्गति में न पड़ो। उस दुरवस्था में न जाओ, जहाँ धर्ममर्यादा का छेदन करने वाले बहुत से परस्त्रीगामी मनुष्य बिल में सोने वाले कीड़ों की भाँति जाया करते हैं। राजकुमारी सुदेष्णा ने मुण् मदिरा लाने के लिये तुम्हारे पास भेजा है। उनका कहना है- ‘मुझे बड़े जोर की प्यास लगी है; अतः शीघ्र मेरे लिये पीने योग्य रस ले आओ’।

कीचक ने कहा- कल्याणी ! राजपुत्री सुदेष्णा की मँगायी हुई वस्तु दूसरी दासियाँ पहुँचा देंगी। ऐसा कहकर सूतपुत्र नक द्रौपदी का दाहिना हाथ पकडत्र लियो।

द्रौपदी बोली- ओ पापी ! यदि मेंने आज तक कभी मन से भी अभिमानवश अपने पतियों के विरुद्ध आचरण न किया हो, तो इस सत्य के प्रभाव से मैं देखूँगी कि तू शत्रु के अधीन होकर पृथ्वी पर घसीटा जा रहा है।

वैयाम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! बड़े-बड़े नेत्रों वाली द्रौपदी को इस प्रकारफटकारती देख कीचक ने उसे पकड़ लेने की इच्छा की; किन्तु वह सहसा झटका देकर पीछे की ओर हटने लगी; इतने में ही झपटकर कीचक ने उसके दुपट्टे का छोर पकड़ लिया। अब वह बड़े वेग से उसे काबू में लाने का प्रयत्न करने लगा। इधर राजकुमारी द्रौपदी बारंबार लंबी साँसें भरती हुई उससे छूटने का प्रयत्न करने लगी। उसने सँभलकर दोनों हाथों से कीचक को बड़े जोर का धक्का दिया। जिससे वह पापी जड़-मूल से कटे हुए वृक्ष की भाँति (धम्म से) जमीन पर जा गिरा। इस प्रकार पकड़ में आने पर कीचक को धरती पर गिराकर भय से काँपती हुई द्रौपदी ने भागकर उस राजसभा की शरण ली, जहाँ राजा युधिष्ठिर विद्यमान थे। कीचक ने भी उठकर भागती हुई द्रौपदी का पीछा किया और उसका केशपाश पकड़ लिया। फिर उसने राजा के देखते-देखते उसे पृथ्वी पर गिराकर लात मारी।

भारत ! इतने में ही भगवान सूर्य ने जिस राक्षस को द्रौपदी की रक्षा के लिये नियुक्त कर रक्खा था, उसने कीचक को पकड़कर आँधी के समान वेग से दूर फेंक दिया। राक्षस द्वारा बलपूर्वक आहत होकर कीचक के सारे शरीर में चक्कर आ गया और वह जड़ से कटे हुए वृक्ष की भाँति निष्चेष्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। सभा में महामना राजा विराट के तथा वृद्ध ब्राह्मणों और क्षत्रियों के देखते देखते कीचक के पादप्रहार से पीडि़त हुई द्रौपदी के मुँह से रक्त बहने लगा। उसे उस अवस्था में देखकर समसत सभासद् सब ओर से हाहाकार कर उठे और सब लोक कहने लगे- ‘सूतपुत्र कीचक ! तुम्हारा यह कार्य उचित नहीं है। यह बेचारी अबला अपने बन्धु-बान्धवों से रहित है। इसे क्यों पीड़ा दे रहे हो ?’ उस समय भीमसेन और युधिष्ठिर भी राजसभा में बैठे हुए थे। उन्होंने कीचक के द्वारा द्रौपदी का यह अपमान अपनी आँखों देखा; जिसे वे सहन न कर सके।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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