एकादशाधिकशततम (111) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 61-76 का हिन्दी अनुवाद
अत: उनकी परीक्षा कर लेनी उचित है। ‘आकाश आँधी की हुई कड़ाही के तले (भीतरी भागों) के समान दिखायी देता है और जूगनू अग्नि के सदृश दृष्टिगोचर होता है, परंतु न तो आकाश में तल है और न जुगनू में अग्नि ही है। ‘इसलिये प्रत्यक्ष दिखायी देने वाली वस्तु की भी परीक्षा करनी उचित है। जो परीक्षा लेकर भले-बुरे की जांच करके किसी कार्य के लिये आज्ञा देता हैं, उसे पीछे पछताना नहीं पड़ता। ‘बेटा! यदि शक्तिशाली राजा दूसरे की मरवा डाले तो यह उसके लिये कोई कठिन काम नहीं हैं, परंतु शक्तिशाली पुरुषों में यदि क्षमा का भाव हो तो संसार में उसी की बढ़ाई की जाती हैं और उसी से राजाओं का यश बढ़ता है। ‘बेटा! तुमने ही इस सियार को मन्त्री के पद पर बिठाया है, और तुम्हारे सामन्तों में भी इसकी ख्याती बढ़ गयी हैं। कोई सुपात्र व्यक्ति बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है। यह सियार तुम्हारा हितैषी सुहद हैं; इसलिये तुम इसकी रक्षा करो। ‘जो दूसरों के मिथ्या कलंक लगाने पर किसी निर्दोष को भी दण्ड देता है, वह दुष्ट मन्त्रियों वाला राजा शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। तदनन्तर उन्हीं शत्रुओं के समूह में से किसी धर्मात्मा सियार ने (जो शेर का गुप्तचर बना था) आकर गीदड़ के साथ जो यह छल-कपट किया गया था, वह सब सिंह को कह सुनाया। इससे शेर की सियार की सच्चरित्रता का पता चल गया और उसने उसका सत्कार करके उसे इस अभियोग से मुक्त कर दिया। इतना ही नहीं, मृगराज ने स्नेहपूर्वक बांरबार अपने सचिव को गले से लगाया। तत्पश्चात नीतिशास्त्र के ज्ञाता सियार ने मृगराज की आज्ञा लेकर अमर्ष से संतप्त हो उपवास करके प्राण त्याग देने विचार किया। शेर ने धर्मात्मा गीदड़ का भली-भाँति आदर-सत्कार करके उसे उपवास से रोक दिया। उस समय उसके नेत्र स्नेह से खिल उठे थे। सियार ने देखा, मालिक का हृदय स्नेह से आकुल हो रहा है, तब उसने उसे प्रणाम करके अश्रुगद्रद वाणी से इस प्रकार कहना आरम्भ किया। ‘महाराज! पहले तो आपने मुझे सम्मान दिया और पीछे अपमानित कर दिया, शत्रुओं की सी अवस्था में डाल दिया, अत: अब मैं आपके पास रहने के योग्य नहीं हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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