शोक (महाभारत संदर्भ) 2

  • अर्थान्न शोचन् प्राप्नोति न शोचन् विंदते फलम्।[1]

शोक करने वाला न अभीष्ट पदार्थ ही पाता है और न फल ही पाता है।

  • न शोचञ्श्रियमाप्नोति न शोचन् विंदते परम्।[2]

शोक करने वाले को न तो लक्ष्मी ही मिलती है और न परमात्मा ही।

  • न शोचन् मृतमंवेति न शोचन् म्रियते नर:।[3]

शोक करने से न तो मरने वाले के साथ जाता है और न मर ही जाता है।

  • शोकस्थानसहस्राणि हर्षस्थानशतानि च।[4]

शोक और हर्ष के अनेक अवसर आते रहते हैं।

  • उदयास्तमयज्ञं हि न शोक: स्प्रष्टुमर्हति।[5]

जो उदय-अस्त (ऊँच-नीच) को जानता है उसे शोक छू नहीं सकता।

  • विशोकता सुखं धत्ते धत्ते चारोग्यमुत्तमम्।[6]

शोक से दूर रहने से सुख और उत्तम स्वास्थ्य बना रहता है।

  • शोचत: शोको व्यसनं नापकर्षति।[7]

शोक करने वाले के संकट को शोक दूर नहीं करता।

  • शोकाद् दु:खाच्च मृत्योश्च त्रसंते प्राणिन: सदा।[8]

प्रानी शोक, दु:ख और मृत्यु से सदा डरते रहते हैं।

  • निरामिषा न शोचंति।[9]

जो फल की इच्छा नहीं रखते वे शोक नहीं करते।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्त्रीपर्व महाभारत 1.38
  2. स्त्रीपर्व महाभारत 1.38
  3. स्त्रीपर्व महाभारत 2.7
  4. शांतिपर्व महाभारत 25.20
  5. शांतिपर्व महाभारत 174.42
  6. शांतिपर्व महाभारत 227.4
  7. शांतिपर्व महाभारत 227.87
  8. शांतिपर्व महाभारत 286.1
  9. शांतिपर्व महाभारत 329.21

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