- अर्थान्न शोचन् प्राप्नोति न शोचन् विंदते फलम्।[1]
शोक करने वाला न अभीष्ट पदार्थ ही पाता है और न फल ही पाता है।
- न शोचञ्श्रियमाप्नोति न शोचन् विंदते परम्।[2]
शोक करने वाले को न तो लक्ष्मी ही मिलती है और न परमात्मा ही।
- न शोचन् मृतमंवेति न शोचन् म्रियते नर:।[3]
शोक करने से न तो मरने वाले के साथ जाता है और न मर ही जाता है।
- शोकस्थानसहस्राणि हर्षस्थानशतानि च।[4]
शोक और हर्ष के अनेक अवसर आते रहते हैं।
- उदयास्तमयज्ञं हि न शोक: स्प्रष्टुमर्हति।[5]
जो उदय-अस्त (ऊँच-नीच) को जानता है उसे शोक छू नहीं सकता।
- विशोकता सुखं धत्ते धत्ते चारोग्यमुत्तमम्।[6]
शोक से दूर रहने से सुख और उत्तम स्वास्थ्य बना रहता है।
- शोचत: शोको व्यसनं नापकर्षति।[7]
शोक करने वाले के संकट को शोक दूर नहीं करता।
- शोकाद् दु:खाच्च मृत्योश्च त्रसंते प्राणिन: सदा।[8]
प्रानी शोक, दु:ख और मृत्यु से सदा डरते रहते हैं।
- निरामिषा न शोचंति।[9]
जो फल की इच्छा नहीं रखते वे शोक नहीं करते।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्त्रीपर्व महाभारत 1.38
- ↑ स्त्रीपर्व महाभारत 1.38
- ↑ स्त्रीपर्व महाभारत 2.7
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 25.20
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 174.42
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 227.4
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 227.87
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 286.1
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 329.21
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज