द्यूत = जूआ
- द्यूते भेदो हि दृश्यते।[1]
द्यूत खेलने से आप में फूट पड़ती देखी जाती है।
- को वै द्यूतं रोचयेद् बुध्यमान:।[2]
कौन बुद्धिमान् द्यूत खेलना पसन्द कर सकता है?
- निकृतिर्देवनं पापम्।[3]
द्यूत छल और पाप है।
- न हि मानं प्रशंसंति निकृतौ कितवस्य्।[4]
द्यूतप्रेमी को छल से मिलने वाले सम्मान को सज्जन अच्छा नहीं मानते
- कितवस्येह कृतिनो वृत्तमेतन्न पूज्यते।[5]
द्यूतप्रेमी के कार्य को अच्छा नहीं माना जाता
- अतिर्कतविनाशश्च देवें।[6]
द्यूत खेलने से ऐसा विनाश होता है जो कल्पना से भी बाहर है।
- न देवितव्यं ह्रष्टेन कितवेनेति न: श्रुतम्।[7]
सुना है खुशी से फूले हुए द्यूतप्रेमी के साथ द्यूत नहीं खेलना चाहिये।
- देवेन बहवो दोषास्तस्मात् तत् परिवर्जयेत्।[8]
द्यूत खेलने में अनेक दोष हैं अत: इसे त्याग देना चाहिये।
- कितवत्वं पण्डिता वर्जयंति।[9]
द्यूत को पण्डित मना करते हैं।
- द्यूतमेतत् पुराकल्पे दृष्टं वैरकरं नृणाम्।[10]
पूर्वकाल में द्यूत खेलना मनुष्यों में आपसी वैर का कारण देखा गया है।
- द्यूतं न सेवेत हास्यार्थमपि बुद्धिमान्।[11]
बुद्धिमान् हास्य के लिये भी द्यूत न खेले।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सभापर्व महाभारत 50.11
- ↑ सभापर्व महाभारत 58.10
- ↑ सभापर्व महाभारत 59.9
- ↑ सभापर्व महाभारत 59.6
- ↑ सभापर्व महाभारत 59.10
- ↑ वनपर्व महाभारत 13.5
- ↑ विराटपर्व महाभारत 68.31
- ↑ विराटपर्व महाभारत 68.33
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 36.70
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 37.19
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 37.19
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