- दैवादेशादापदं प्राप्य विद्वांश्चरेन्नृशंस न हि जातु। [1]
दैववश आपत्ति में फंसने पर भी विद्वान् कभी क्रूर कर्म न करे।
- वर्जयंति नृशंसानि पापेष्वपि रता नरा:। [2]
पाप में लगे रहने वाले भी क्रूर कर्म नहीं करते।
- कुर्यान्न निंदितं कर्म न नृशंसं कथंचन। [3]
किसी प्रकार भी निंदित और क्रूर कर्म नहीं करना चाहिये।
- धर्म: सुदुर्लभो विप्र नृशंसेन महात्मनाम्। [4]
क्रूर लोगों के लिये महात्माओं के धर्म को जानना अति दुर्लभ है।
- बलवंतं प्रभुं राजन् क्षिर्पं दारुणमाप्नुयात्। [5]
राजन्! बलवान् राजा को शीघ्र ही क्रूर कर्म का अवसर मिलता रहता है।
- न बलस्थोऽहमस्मीति नृशंसानि समाचरेत्। [6]
अपने आप को बलवान् समझकर क्रूर कर्म न करें।
- नृशंसकर्माणं वर्जयंति नरा नरम्। [7]
क्रूर कर्म करने वाले मनुष्य को लोग त्याग देते हैं।
- न धर्मार्थी नृशंसेन कर्मणा धनमर्जयेत्। [8]
धर्म के इच्छुक मनुष्य को क्रूर धर्म के द्वारा धन नहीं कमाना चाहिये।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत92.17
- ↑ आदिपर्व महाभारत177.9
- ↑ आदिपर्व महाभारत106.11
- ↑ वनपर्व महाभारत205.14
- ↑ विराटपर्व महाभारत68.65
- ↑ शांतिपर्व महाभारत133.19
- ↑ शांतिपर्व महाभारत164.2
- ↑ शांतिपर्व महाभारत292.5
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