संत: (महाभारत संदर्भ) 4

  • चोद्यमानोऽपि पापेन शुभात्मा शुभमिच्छति।[1]

पापी पाप के लिये प्रेरणा करे तो भी सज्जन पुण्य ही करना चाहता है।

  • न चाददीत वित्तानि सतां हस्तात् कदाचन।[2]

संतो के हाथ से कभी धन न छीनें।

  • न वै सतां वृत्तमेतत् परिवादोऽथ पैशुनम्।[3]

किसी पर दोष लगाना और पैशुन (चुगली) करना संतों का व्यवहार नहीं।

  • गुणानामेव वक्तार: संत: सत्सु नराधिप।[4]

राजन्! संत तो संतों के पास किसी के गुण ही गाया करते हैं।

  • संतश्चाचारलक्षणा:।[5]

सदाचार ही सन्तों का परिचय है।

  • सता तु धर्मकामेन सुकरं कर्म दुष्करम्।[6]

सज्जन धर्म करना चाहे तो उसके लिये कठिन कर्म भी सरल है।

  • सतां पंथानमावृत्य सर्वपापै: प्रमुच्यते।[7]

संतों के मार्ग पर चलकर ऋजु सभी पापों से मुक्त हो जाता है।

  • सद्भिरध्यासिता धीरै: कर्माभिर्धर्मसेतव:।[8]

धैर्यवान् सन्तों ने अपने कर्मों के द्वारा धर्म की मर्यादा स्थापित की है।

  • सर्वभूतहितं लोके सतां धर्ममनिंदितम्।[9]

संसार में सभी प्राणियों का हित करना सज्जनों का प्रशंसनीय धर्म है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उद्योगपर्व महाभारत 139.8
  2. शांतिपर्व महाभारत 57.21
  3. शांतिपर्व महाभारत 132.1
  4. शांतिपर्व महाभारत 132.13
  5. शांतिपर्व महाभारत 193.2
  6. शांतिपर्व महाभारत 309.9
  7. अनुशासनपर्व महाभारत 112.23
  8. आश्वमेधिकपर्व महाभारत 35.44
  9. आश्वमेधिकपर्व महाभारत 38.1

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