गृहस्थ (महाभारत संदर्भ)

  • एकतश्च त्रयो राजान् गृहस्थाश्रम एकत:।[1]

अन्य तीनों आश्रम एक ओर हैं तथा गृहस्थ आश्रम एक ओर है।

  • शास्त्रदृष्ट: परो धर्म: स्थितो गार्हस्थ्यमाश्रित:।[2]

शास्त्रों में कहा गया परम धर्म गृहस्थाश्रम के आश्रय पर ही टिका है।

  • यथा प्रव्रजितो भिक्षुस्तथैव स्वे गृहे वसेत्।[3]

जैसे संन्यासी रहता है वैसे ही (आसाक्ति त्याग कर) गृहस्थ घर में रहे।

  • गृहस्थस्त्वेष धर्माणां सर्वेषां मूलमुच्यते।[4]

गृहस्थ आश्रम सब धर्मों का मूल कहा जाता है।

  • कर्स्यैषा वाग् भवेत् सत्या मोक्षो नास्ति गृहादिति।[5]

गृहस्थ आश्रम से मोक्ष नहीं होता, यदि किसी ने कहा तो सत्य नहीं कहा

  • अप्रयत्नागता: सेव्या गृहस्थैर्विषया: सदा।[6]

गृहस्थों को बिना प्रयत्न के प्राप्त विषयों का भोग करना चाहिये।

  • धर्मो गार्हथ्स्यो लोकधारण:।[7]

गृहथ्य का धर्म संसार को धारण करना है।

  • चत्वार आश्रमा: प्रोक्ता: सर्वे गार्हस्थ्यमूलका:।[8]

चार आश्रम कहे गये हैं सभी आश्रमों का मूल गृहस्थ आश्रम है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शांतिपर्व महाभारत 12.12
  2. शांतिपर्व महाभारत 23.2
  3. शांतिपर्व महाभारत 36.35
  4. शांतिपर्व महाभारत 234.6
  5. शांतिपर्व महाभारत 269.10
  6. शांतिपर्व महाभारत 259.35
  7. अनुशासनपर्व महाभारत 141.45
  8. आश्वमेधिकपर्व महाभारत 45.13

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