- नासम्यक्कृतकारी स्यादुपक्रम्य कदाचन।[1]
कोई योजना आरम्भ कर दें तो उसे पूरा किये बिना कभी न छोड़ें।
- अवश्यकरणीर्य च मा त्वां कालोऽत्यगादयम्।[2]
जो कर्म अवश्य करना है उसे कर डालो, समय बीत न जाये।
- कर्माणि कुर्वंति संसारविजिगीषव:। [3]
संसार को जीतने की इच्छा वाले मनुष्य कर्म करते हैं।
- बहूनां समवाये हि भावानां कर्म सिद्ध्यति।[4]
अनेक कारणों के एकत्र होने पर ही कर्म में सफलता मिलती है।
- विमृशितकार्यकरोऽधिकं जयति। [5]
विचार कर कार्य करने वाला अधिक सफलता पाता है।
- अन्यथा ह्याचरन् कर्म पुरुष: स्यात् सुबालिश:। [6]
अन्यथा (विधि या समय के विपरीत) कर्म करने वाला पुरुष मूर्ख है।
- योन्यत्मर्कण:साधु मन्येन्मोघं तस्यालपितं दुर्बलस्य:।[7]
कर्म करने से कर्म न करना श्रेष्ठ मानने वाले दुर्बल का आलाप व्यर्थ है।
- प्राप्तकालं मनुष्येण क्षमं कार्यम्। [8]
मनुष्य को समयोचित और योग्य कार्य करना चाहिये।
- कर्मण्येवधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। [9]
कर्म करने का ही तेरा अधिकार है फल पर तेरा अधिकार नहीं है।
- आत्मवंतं न कर्माणि निबन्धनंति। [10]
जिसका मन वश में है उसे कर्म का बन्धन नहीं होता।
- कर्मसंन्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते।[11]
कर्म के त्याग से कर्म के फल आसक्ति का त्याग अच्छा है।
- सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।[12]
स्वाभाविक कर्म में यदि दोष भी हों तो भी उसे त्याग न दें।
- कर्मणा वर्धते धर्मो यथाधर्मस्तथैव स:। [13]
कर्म से धर्म बढ़ता है, जो धर्म को अपनाता है वैसा ही हो जाता है।
- अल्पं हि सारभूयिष्टं यत् कर्मोदारमेव तत्।[14]
छोटा दिखने पर भी जिस कर्म में सार अधिक हो वही महान् है।
- यदप्यल्पतरं कर्म तदप्येकेन दुष्करम्। [15]
छोटा सा कर्म भी अकेले मनुष्य के लिये कठिन होता है।
- कर्म चात्महिमं कार्यं तीक्ष्णं वा यदि वा मृदु।[16]
कठोर हो या कोमल, जो अपने लिये हितकारी हो वही कर्म करना चाहिये।
- न कर्मणाप्नोत्यनवाप्यमर्थम्।[17]
जो वस्तु पाने योग्य नहीं है उसे मनुष्य कर्म करके भी नहीं पा सकता।
- नान्तं सर्वविधित्सानां गतपूर्वोऽस्ति कश्चन।[18]
किसी के भी सभी कार्य कभी पूरे नहीं हुये।
- पेशलं चानुरुपं च कर्त्तव्य हितमात्मन:।[19]
सुंदर, अनुकूल और अपने लिये हितकारी जो कर्म हो वहीं करना चाहिये।
- प्राणी करोत्ययं कर्म सर्वमात्मार्थमात्मना। [20]
यह प्राणी सारा कार्य स्वयं अपने लिये ही करता है।
- विनाशहेतुर्नान्योऽस्य वध्यतेयं स्वकर्मण्। [21]
ऋजु के विनाश का कारण दूसरे नहीं है, अपने ही कर्म से मरता है।
- सर्वे कर्मवशा वयम्।[22]
हम सब कर्म के ही अधीन हैं।
- .कथं कर्म विना दैवं स्थास्यति स्थापयिष्यति। [23]
कर्म के बिना भाग्य कैसे स्वयं टिकेगा, कैसे औरों को टिकाकर रखेगार?
- आत्मानमाख्याति हि कर्मभिर्नर:। [24]
अपने कर्मों से मनुष्य अपना परिचय देता है।
- कर्मणा दृष्कृतेनेह स्थानाद् भ्रश्यति। [25]
कुकर्म करने से ऋजु अपने स्थान से भ्रष्ट हो जाता है।
- न प्रत्यक्षं परोक्षं वा किंचिद् दुष्टं समाचरेत्। [26]
सब के सामने या छिपकर कोई अनुचित कर्म न करे।
- ↑ आदिपर्व महाभारत 139.9
- ↑ आदिपर्व महाभारत 158.16
- ↑ वनपर्व महाभारत 2.80
- ↑ वनपर्व महाभारत 32.51
- ↑ वनपर्व महाभारत 313.113
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 5.2
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 29.8
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 80.5
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 26.47
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 28.41
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 29.2
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 42.48
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 75.29
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 75.29
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 80.1
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 139.83
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 167.48
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 177.17
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 181.20
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 292.1
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 1.71
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 1.72
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 6.23
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 48.49
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 143.7
- ↑ आश्रमवासिकपर्व महाभारत 46.43
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